Recents in Beach

बाल विकास में पोषण की भूमिका (ROLE OF NUTRITION IN CHILD DEVELOPMENT)

बाल विकास में पोषण की भूमिका (ROLE OF NUTRITION IN CHILD DEVELOPMENT)


जिस प्रकार बाल विकास में प्रकृति की भूमिका आवश्यक है, उसी प्रकार बाल विकास में पोषण का भी अपना ही महत्त्व है। बालक को जब अच्छा पोषण प्राप्त होता है, तो शरीर हृष्ट-पुष्ट व विकार रहित, रोग रहित होकर विकास अनवरत तेज गति से होता चला जाता है। इसके अभाव में विकास अवरुद्ध हो जाता है अथवा बीमार हो सकता है। इसलिये शारीरिक विकास के लिये पोषण का भी महत्त्व है।


स्वभावतः प्रत्येक माता-पिता चाहते है कि उनका बच्चा सदैव स्वस्थ व प्रसन्नचित्त रहे। स्वस्थ व प्रसन्नचित्त शिशु ही किसी भी परिवार की बहुमूल्य निधि होती है। वह माता-पिता की आशाओं का दीप होता है।


शिशु का स्वास्थ्य माता-पिता के स्वास्थ्य तथा पालन-पोषण पर निर्भर करता है। शिशु का उचित पालन-पोषण उसके स्वास्थ्य को स्थायित्व प्रदान करता है। पालन पोषण का सबसे प्रमुख भाग शिशु का आहार है। बालक का उत्तम स्वास्थ्य उसके आहार पर निर्भर करता है, क्योंकि उचित आहार से शिशु की शारीरिक वृद्धि तथा विकास होता है। बालक का स्वास्थ्य सन्तुलित आहार से ही उत्तम अवस्था में रहता है। बालक किसी-न-किसी रूप में बराबर क्रिया करता है। इसमें शक्ति

व्यय होती है और उस शक्ति की पूर्ति आहार से होती है। इसलिये यह आवश्यक है कि माता, शिशु के आहार की उचित व्यवस्था करें।


छोटे बच्चों का मुख्य आहार दूध ही होता है, परन्तु जैसे-जैसे बच्चा बढ़ता है. दूध रूपी आहार उसके लिये अपर्याप्त होने लगता है। इसके साथ उसे किसी ठोस आहार की आवश्यकता पडती है। बालक के भोजन में निम्नलिखित पौष्टिक तत्त्वों का होना आवश्यक है, जैसे विटामिन-डी विटामिन डी से बालक का विकास होता है। इससे कैल्शियम तथा फॉस्फोरस प्राप्त होता है। यह सूर्य की किरणों के सेवन से प्राप्त होता है। सूर्य की किरणें त्वचा में इस विटामिन की उत्पत्ति करती है। इसलिये बच्चों को कुछ समय धूप में रखना चाहिए। बड़े होने पर बच्चों को विटामिन ए युक्त पदार्थों की बड़ी आवश्यकता होती है। यह माता के दूध से प्राप्त होता है, परन्तु बड़ा होने पर इसकी उसे अधिक आवश्यकता पड़ती है, इसलिये बच्चे को मछली का तेल व अण्डा देना चाहिए। विटामिन डी के अभाव में बच्चे को सूखा रोग, जुकाम, खाँसी तथा आँख की


बीमारियों आदि होने का भय रहता है। विटामिन सी से बच्चों के मसूड़े बनते हैं। यह मौसम्मी व सन्तरे आदि में मिलता है। इसके अभाव मे स्कर्वी नामक रोग हो जाता है। सभी फलों के रस में विटामिन्स पाये जाते हैं। इसलिये बच्चों को फलों का रस दिया जाना चाहिए। बच्चों के रक्त को स्वस्थ व चमकीला बनाये रखने के लिये लौहयुक्त पदार्थ देने चाहिए। इनकी


मात्रा अण्डे व हरी सब्जियों में पाई जाती है। सातवें महीने के बाद बालक को ठोस आहार देना चाहिए, क्योंकि अब उसे प्रोटीन की अधिक आवश्यकता रहती है। वैसे प्रोटीन कई पदार्थों में पाया जाता है, परन्तु बालक की पाचन शक्ति को ध्यान में रखते हुये उसे धीरे-धीरे दलिया, दाल, चावल, सूजी व खीर आदि भी देने चाहिए।


यदि माता-पिता इन सब बातों का ध्यान रखें तो बच्चों को पौष्टिक व सन्तुलित भोजन प्राप्त


हो सकेगा जो उसके विकास के लिये आवश्यक है।


बालक के शरीर को स्वस्थ व हृष्ट-पुष्ट रखने के लिये उसे पौष्टिक भोजन प्रदान करना आवश्यक है। पौष्टिक व सन्तुलित भोजन के कारण बालक की आन्तरिक एवं बाह्य क्रियायें सुचारु रूप से चलती हैं तथा शरीर का उत्तम विकास होता रहता है। लेकिन बालक के खाने में भोजन की मात्रा कदापि बराबर नहीं रहती। जैसे-जैसे उसकी आयु में वृद्धि होती जाती है वैसे-वैसे उसकी भोजन करने की मात्रा में भी अन्तर आता जाता है। जब बच्चा उसकी आयु के अनुसार तथा रुचि के साथ भोजन करे और उसका शारीरिक विकास भी उचित रूप से हो तब यह समझना चाहिए कि बच्चे को उसकी शारीरिक आवश्यकताओं के अनुकूल भोजन प्राप्त हो रहा है परन्तु कभी-कभी ऐसा भी देखा जाता है कि बालक अपनी शारीरिक आवश्यकता के अनुरूप भोजन नहीं करता है, तो माता को उसके कारणों का पता लगाना चाहिए। जैसे बच्चे की रुचि के अनुरूप भोजन न होने पर बच्चा पूरा भोजन नहीं करता है। रुचि के अनुरूप होने पर भी कभी-कभी बच्चा पूरा भोजन नहीं। करता। इसका प्रमुख कारण है विश्राम व निद्रा का न मिलना। इसके लिये बच्चे के पूरे विश्राम व निद्रा की व्यवस्था करें। कभी-कभी माता बच्चे की ओर ध्यान नहीं दे रही है, तो उनका ध्यान आकृष्ट करने के लिये बच्चे भोजन नहीं करते हैं। कभी-कभी बच्चों को बहुत गरिष्ठ भोजन दिया जाता है, तो इससे उनकी पाचन क्रिया खराब हो जाती है जिसके कारण वह भोजन में अरुचि प्रकट करते हैं। भोजन करते समय बीच-बीच में टोकना नहीं चाहिए। ऐसा करने से बच्चे में आत्मग्लानि के भाव उत्पन्न हो जाते हैं। ऐसी दशा में भी बच्चा भोजन करना छोड़ देता है। किसी अन्य बालक की अच्छाइयों को बढ़ा-चढ़ाकर कहने से भी बच्चे भोजन करना छोड़ देते हैं। बच्चे को कभी भी जबरदस्ती भोजन नहीं कराना चाहिए। भूख न लगने पर औषधि देनी चाहिए। यदि इसके बाद भी भूख नहीं लगती है तो नर्सरी स्कूल में भेज देना चाहिए, क्योंकि वहाँ पर हम उम्र बच्चे को खाते देखकर स्वयं भी खाने लग जाते है अन्यथा डॉक्टर को दिखाना चाहिए।

यदि बालक उचित रूप से वृद्धि कर रहा है, वजन भी बढ़ रहा है तथा आवश्यकतानुसार भोजन भी कर रहा है, तो माता-पिता को उसके बारे में किसी प्रकार की चिन्ता नहीं करनी चाहिए। इसके विपरीत भार न बढ़े व भूख भी न लगे तो समझना चाहिए कि बच्चा अवश्य किसी रोग पीडित है। बच्चे की अस्वस्थता का कारण कुपोषण होता है।


कुपोषण के कारण


कुपोषण के कई कारण हो सकते हैं जो निम्नलिखित है- (i) अपर्याप्त भोजन- जहाँ बच्चे को उसकी शारीरिक आवश्यकता के अनुरूप भोजन नहीं


मिलता है तभी उसका कुपोषण होने लगता है। (ii) आवश्यकतानुसार भोजन न मिलना- प्रत्येक व्यक्ति को उसकी शारीरिक आवश्यकतानुसार


भोजन मिलना चाहिए। आवश्यकता से कम भोजन मिलना भी कुपोषण का कारण बन जाता है। (iii) खराब भोजन कुछ भोजन ऐसे होते हैं, जो खाने में बहुत स्वादिष्ट लगते हैं, परन्तु अपचनशील होते हैं, जैसे-घी व मसाले लगातार ऐसा भोजन करने से उसकी पाचनशक्ति खराब हो जाती है तथा उसका कुपोषण होने लगता है।


(iv) आहार में पोषक तत्त्वों की कमी-जब भोजन में लगातार पोषक तत्व जैसे-प्रोटीन बसा विटामिन, कार्बोहाइड्रेट्स, खनिज लवण तथा जल की मात्रा पर्याप्त रूप से प्राप्त नहीं हो पाती तो व्यक्ति का कुपोषण होना आरम्भ हो जाता है। इसके अतिरिक्त शरीर में भोजन ग्रहण करने की निश्चित मात्रा होती है। यदि एक ही भोजन तत्त्व को अधिक या कम मात्रा में लिया जायेगा तो कुपोषण होने की सम्भावना रहती है।


(1) आर्थिक स्थिति का ठीक न होना आजकल के महँगाई के युग में अधिकांश जनता को


भरपेट भोजन नहीं मिल पाता, जिसके कारण उनके शरीर में पोषक तत्त्वों की कमी रहती है। इसके


अतिरिक्त कुछ लोग अज्ञानता के कारण भोजन पर अपनी आय का उतना प्रतिशत व्यय नहीं कर


पाते जितना उन्हें करना चाहिए। इसके परिणामस्वरूप उनके शरीर में पोषक तत्त्वों की कमी होती


जाती है और वे कई प्रकार से कुपोषण के रोगों से पीड़ित हो जाते हैं।


(vi) भोजन सम्बन्धित आदतें-भोजन सदैव नियमित समय पर ही करना चाहिए। नियमित रूप से भोजन करने पर भोजन का उचित रूप से पोषण होता रहता है। असमय भोजन करने से पाचन क्रिया खराब हो जाती है जिसका परिणाम होता है-बदहजमी, अपच, पेट का दर्द इत्यादि रोग।


(vii) आहार विज्ञान के ज्ञान की कमी आजकल अधिकांश जनता पढ़-लिख गई है. परन्तु फिर भी वह अपनी पुरानी रूढ़ियों पर चलती है। अज्ञानता के कारण धनी परिवार भी कुपोषण के शिकार बन जाते हैं। यद्यपि इनमें इतना सामर्थ्य है कि वह पौष्टिक आहार ग्रहण कर सकते है,


परन्तु आहार विज्ञान के ज्ञान के अभाव में वे कुपोषण के शिकार बन जाते हैं। (viii) अस्वास्थ्यकर वातावरण- अनुपयुक्त वातावरण भी कुपोषण में सहायक होता है। व्यक्ति को स्वस्थ रहने के लिये उचित पोषण के साथ-साथ खुली स्वच्छ वायु और सूर्य के प्रकाश में व्यायाम करना चाहिए।


(ix) अत्यधिक कार्य हर समय कार्य करने से भी व्यक्ति के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है।


इसलिये व्यक्ति को कार्य के साथ-साथ आराम भी करना चाहिए अन्यथा वह कुपोषण का शिकार बन सकता है। (3) निद्रा का अभाव उचित पोषण होते हुये भी यदि व्यक्ति को आराम व निद्रा प्राप्त नहीं.


होती तो भी उसका उचित पोषण व्यर्थ है। (xi) घर की परिस्थितियों-घर की परिस्थितियों का भी बालक के पोषण पर प्रभाव पड़ता है। यदि बालक का उचित पोषण हो रहा है, परन्तु परिवार में उसका आदर नहीं है, तो बच्चे में ईर्ष्या व जलन की भावना उत्पन्न हो जायेगी जिसका उसके स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है और उसमें कुपोषण के लक्षण प्रकट होने लगते हैं। कुपोषण से बचाने के लिये बालक के भोजन में उपर्युक्त कमियों को कम करना चाहिए ताकि


बालक का उत्तम विकास हो सके।


विद्यालय का सामाजिक वातावरण और विकास


सामाजिक विकास से तात्पर्य है, अपने साथ और दूसरों के साथ भली प्रकार से चलने की बड़ती हुई योग्यता। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। यह दूसरों के व्यवहार को प्रभावित करता है और उनके व्यवहार से प्रभावित होता है। पारस्परिक व्यवहार पर ही सामाजिक सम्बन्ध निर्भर करते है। सामाजिक विकास मनुष्य को इस योग्य बनाता है कि वह अपनी वर्तमान सामाजिक परिस्थितियों से अनुकूलन कर सके और अन्य व्यक्तियों की आशाओं के अनुरूप व्यवहार कर सके। सामाजिक विकास से व्यक्ति अपनी आयु सामाजिक स्थिति और समाजिक कार्य के अनुरूप व्यवहार करता है।


विद्यालय का सामाजिक वातावरण बालक के विकास में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। विद्यालय के सामाजिक वातावरण का अर्थ है-जिस प्रकार बालक का प्रारम्भिक विकास परिवार में होता है। और उनके कार्य-कलाप बालक के जीवन को अलंकृत करते हैं, उसी प्रकार बालक के विकास की दूसरी सीढ़ी विद्यालय होती है। विद्यालय का वातावरण भी बालक के व्यक्तित्व-विकास का एक महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। परिवार में बालक पर जिस प्रकार माता-पिता तथा भाई बहिनों के व्यक्तित्व और कार्यकलापों का प्रभाव पडता है, उसी प्रकार विद्यालय का वातावरण भी उसे प्रभावित, करता है। विद्यालय के शिक्षक साथियों का भी उन पर प्रभाव पडता है। शिक्षक का व्यक्तित्व और बालक के प्रति उनका व्यवहार इन दोनो बातो का बालक के व्यक्तित्व पर प्रभाव पड़ता है। शिक्षक का रहन-सहन, तौर-तरीके, व्यवहार आदि बालक को प्रभावित करते हैं। शिक्षक के अतिरिक्त कक्षा के साथी भी बालक को प्रभावित करते हैं। विद्यालय के नियमों के अनुसार कार्य करने से नियन्त्रित व संयमित जीवन बिताने की आदत का विकास होता है। सहपाठियों में पढ़ने-लिखने के मामले में स्पर्द्धा रहती है, इससे जहाँ ईर्ष्या द्वेष की प्रवृत्तियों बढ़ सकती है वहाँ बालक अधिक परिश्रमी भी बन सकता है।


विद्यालय द्वारा सामुदायिक भावना का निर्माण होता है। विभिन्न कार्यों के विभाजन से उत्तरदायित्व सम्भालने की योग्यता आती है। सभाओं के आयोजन से एकता की भावना का विकास होता है। सामूहिक प्रार्थना, परेड आदि से सामूहिक जीवन में चेतना आती है तथा बालक का सामाजीकरण होता है। इस प्रकार शिक्षक तथा साथी सामाजीकरण में महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं।


विद्यालय के सामाजिक वातावरण को प्रभावित करने वाले कारक विद्यालय का सामाजिक वातावरण को प्रभावित करने वाले कुछ महत्त्वपूर्ण कारक है जो


बालक के क्रियाकलापों को प्रभावित करते हैं।


(i) उत्सव- विद्यालय का सामाजिक वातावरण समय-समय पर विद्यालय में मनाये जाने वाले उत्सवो से प्रभावित होता है। तीज-त्यौहार बालक को भारतीय संस्कृति की याद दिलाते है। उसी प्रकार महापुरुषों की जयन्तियों बालक को अपने देश के प्रति व समाज के प्रति अपने कर्त्तव्यों की याद दिलाती है और उनको स्मरण कर बालक अपने व्यक्तित्व को निखारता है तथा ये उत्सव समय-समय पर बालक का पथ प्रदर्शन करते हैं।


(ii) शिक्षक-अभिभावक सम्मेलन-विद्यालय में समय-समय पर शिक्षक अभिभावक सम्मेलन का आयोजन किया जाता है। ऐसे आयोजनों से विद्यालय में सामाजिक वातावरण का निर्माण होता है। इस सम्मेलन में विद्यालय परिसर में ही शिक्षकों व अभिभावकों का मिलन होता है। इस सम्मेलन में शिक्षक व अभिभावक मिलकर स्कूल व बालकों से सम्बन्धित समस्याओं पर विचार-विमर्श करते है तथा आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। इससे शिक्षकों व अभिभावकों के सम्बन्धों में आती है. अध्यापक बालको के पारिवारिक परिवेश के बारे में जानकारी प्राप्त करते हैं जिससे दे बच्चों की समस्याओं को हल करने में सफल हो सकते हैं तथा बालक के व्यक्तित्व का विकास सम्भव हो सकता है। मधुरता


(iii) प्रार्थना सभा का आयोजन प्रार्थना सभा का आयोजन विद्यालय के कार्यों में सद महत्त्वपूर्ण कार्य है। इस अवसर पर सारे विद्यालय परिवार के सदस्य एक साथ सभी से आपस में मिलते हैं, अभिवादन करते हैं, जिससे बच्चों में बड़ों के प्रति आदर की भावना व नम्रता के गुणों का विकास होता है। इससे बच्चे सकायों की ओर प्रवृत्त होते हैं। आध्यात्मिकता के गुणों का विकास होता है।


घूमने (iv) पिकनिक (भ्रमण)- पिकनिक भी विद्यालय में सामाजिक वातावरण का निर्माण करती हैं। प्रतिवर्ष एक या दो बार शाला व परिवार द्वारा मिलकर स्कूल से बाहर खुले वातावरण में या मनोरजन के कार्यक्रम आयोजित किये जाने चाहिए जिससे बालक स्कूल से परे बाहर के वातावरण का आनन्द ले सके व प्रकृति से परिचित हो सके। इन कार्यक्रमों के आयोजन से भी बालकों में सहयोग करने व मिलजुलकर कार्य करने की भावना का विकास होता है। भ्रमण भी सामाजिक वातावरण निर्माण का एक रूपक है।


(v) बालचर सभा-बालचर सभा भी विद्यालय के सामाजिक वातावरण को प्रभावित करती


है। बालचर सभा सभा बालकों को अच्छे नागरिकों के गुणों को प्रत्यक्ष में ही दिया जाता है, जिससे


बालक विभिन्न प्रकार की वास्तविकताओं से परिचित हो सके।


(vi) खेल तथा अन्य मनोरंजन क्रियायें जो बालक अन्य बालकों के साथ खेलते हैं उनका सामाजिक विकास नहीं खेलने वाले बालकों की अपेक्षा अधिक होता है। एक साथ खेलने से बालकों में प्रतियोगिता तथा सहानुभूति और नेतृत्व की भावना का विकास होता है। घर पर अकेले बैठने वाले बालकों में इन गुणों का अभाव होता है, जिससे उनके सामाजिक अभियोजन में बाधा आती है। अतः बालकों के उचित सामाजिक विकास के लिये यह आवश्यक है कि उन्हें अन्य बालकों के साथ खेलने का अवसर तथा मनोरंजन के साधन प्रदान किये जायें।


(vii) कैम्प- कैम्प में रहकर बालक उसके नियमों का पालन करना, नेता की बातें मानना


आदि सीखता है, जिसका उपयोग आगे के सामाजिक जीवन में अत्यधिक होता है। यही कारण है


कि हर स्कूल में बालकों को स्काउट की शिक्षा दी जाती है।


(viii) समाजोत्पादक कार्यक्रम एवं समाजसेवा वर्तमान समय में प्रत्येक विद्यालय द्वारा एक


तीन दिन का समाज सेवा शिविर लगाया जाता है जिसका प्रमुख उद्देश्य बालको में सामाजिक गुणों


का विकास करना है। विद्यालय में सभी जातियों व धर्मों के बच्चे एक साथ पढ़ते हैं। इससे उनमें


सबके साथ मिलजुलकर कामों में हाथ बँटाना, सहयोग करना व साथ-साथ रहने की भावना का विकास होता है तथा साथ-ही-साथ बच्चों को ऐसे कामों की जानकारी व ट्रेनिंग भी दी जाती है कि वह कुछ उत्पादन कार्य भी कर सके और उनमें अपने पैरों पर खड़े होने की सामर्थ्य आ सके। ये कार्य बालक का सामाजिक वातावरण को बहुत प्रभावित करते हैं। इस प्रकार विद्यालय का सामाजिक वातावरण बालकों में सामाजिकता के गुणों का निर्माण करता है ताकि एक बालक आदर्श नागरिक बन सके तथा आदर्श समाज का निर्माण कर सके।


इससे समाज लाभान्वित होगा तथा वे सभी उससे प्रभावित होंगे।


Post a Comment

0 Comments