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2 पृथक्करण से समावेशन में परिवर्तन TRANSITION FROM SEGREGATION TO INCLUSION

2 पृथक्करण सेमेंसमावेशन में परिवर्तनमें [TRANSITION FROMOSEGREGATION TO INCLUSION]

शिक्षा में पृथक्करण का अभिप्राय विशिष्ट शिक्षा से है। प्रत्येक विद्यालय में कुछ ऐसे विद्यार्थी होते हैं। जो सामान्य बालको से भिन्न होते हैं। ऐसे विद्यार्थियों को विशिष्ट शिक्षा की आवश्यकता होती है क्योंकि ऐसे बालक सामान्य बालकों में समायोजित नहीं हो सकते।
मानवमेंसभ्यता के विकास के साथ-साथ हमने प्रत्येकमेंक्षेत्र में उन्नति की है। शिक्षा का क्षेत्र भीमेंइससे अछूता नहीं रहा है। कुछ समयमेंपूर्व तक हम किसी भी प्रकार से असमर्थ बालकों की शिक्षा पर ध्यान नहीं। देते थे, लेकिन मनोविज्ञान ने शिक्षा के क्षेत्र को एक नई राह दी। आज अगर हम किसी भी क्षेत्र में नजर डालते हैं तो हमें प्रत्येक क्षेत्र में मनोविज्ञान का योगदान नजर आता है। शिक्षा के प्रचार-प्रसार से पहले शारीरिक या मानसिक दोष वाले बालक को बुरी नजर से देखा जाता था तथा इसे पूर्व जन्म के कर्मों का फल समझा जाता था। लेकिन धीरे-धीरे लोगों की सोच में परिवर्तन आने लगा और हमने उन बालको को भी समाज का अंग मानना शुरू कर दिया। आज सभी प्रकार के बच्चों को, चाहे वे शारीरिक विकलांग है (Physically Handicapped), अधिगम असमर्थ (Learning Disabled) या भावनात्मक रूप से ग्रस्त (Emotionally Disturbed) हैं, को शिक्षा ग्रहण करने का समान अधिकार है। सरकार के साथ-साथ समाज के लोग भी इनकी शिक्षा को लेकर चिन्तित है तथा प्रत्येक स्तर पर इनकी शिक्षा का प्रबन्ध करने की कोशिश जारी है ताकि इस प्रकार के बच्चे भी शिक्षा ग्रहण कर सके और वे भी समाज का अंग बन सके। नई शिक्षा नीति 1986 में इस प्रकार के बालकों की शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया गया है ताकि बिना किसी भेदभाव के वे भी अपने सामर्थ्य के अनुसार शिक्षा ग्रहण कर सकें।

समावेशी शिक्षा में परिवर्तन (TRANSITION FROM SEGREGATION TO INCLUSION)

आज के आधुनिक युग में शिक्षा सभी के लिये का नारा अत्यधिक प्रचलित है। चूँकि भारत एक धर्म निरपेक्ष देश है, अतः यहाँ प्रत्येक जाति, धर्म तथा रंग-रूप के व्यक्ति रहते हैं। जिस प्रकार यह शारीरिक रूप से एक दूसरे से अलग है ठीक उसी प्रकार से यह आपस में मानसिक रूप से भिन्न है। अतः इन बालकों की शिक्षा हेतु समावेशी शिक्षा का प्रावधान रखा गया। समावेशी शिक्षा की व्यवस्था (Planning For inclusive Education)

विशिष्ट बालक का क्षेत्र बहुत व्यापक होने के कारण विशिष्ट शिक्षा का भी क्षेत्र अति व्यापक है। भिन्न-भिन्न प्रकार के विशिष्ट बालकों के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार की विशिष्ट शिक्षा की व्यवस्था करनी पड़ती है। मुख्य रूप से विशिष्ट शिक्षा की व्यवस्था निम्नलिखित रूपों में की जानी चाहिए:-

1. समावेशी शिक्षा हेतु परिभ्रामी अध्यापकों की व्यवस्था विशिष्ट बालकों को उचित शिक्षा प्रदान करने के लिए विशिष्ट परिभ्रामी अध्यापकों की व्यवस्था करनी चाहिए। जिससे कि बालकों को शिक्षा व निर्देशन देने में अधिकतम सहायता प्रदान की जा सके। इस प्रकार इन समावेशी अध्यापकों के माध्यम से विशिष्ट बालकों की निर्योग्यताओं को दूर किया जा सकता है।

2. समाज सेवियों तथा विशेषज्ञों की व्यवस्था विशिष्ट बालकों को प्रशिक्षित करने के लिए समाज सेवियों तथा विशेषज्ञों की व्यवस्था करनी चाहिए। इनके लिए ये लोग अधिक लाभकारी सिद्ध होते है। विशिष्ट शिक्षा के क्षेत्र में ये विशिष्ट रूप से प्रशिक्षित होते हैं। सप्ताह में एक या दो बार यदि सम्भव हो सके तो प्रत्येक दिन इन विशिष्ट व्यक्तियों की सहायता व निर्देशन लेना चाहिए।

3. अतिरिक्त कक्षा की योजना सामान्य विद्यालयों या कक्षाओं में पढ़ रहे विशिष्ट बालकों को अलग करके अतिरिक्त कक्षा की व्यवस्था करनी चाहिए जिसके फलस्वरूप मन्द-बुद्धि तथा मानसिक रूप से पिछड़े बालकों का विकास सामान्य बालकों जैसा हो सके तथा वे कक्षा में बार-बार असफल न हो सके। कक्षा-शिक्षण के अतिरिक्त पहले या बाद में इस प्रकार की कक्षाओं की व्यवस्था करके उनकी कमियों को दूर किया जा सकता है। तथा सामान्य बालकों के साथ समायोजित किया जा सकता है।

4. समावेशी कक्षा योजना-जिस विद्यालय में शैक्षिक रूप से पिछड़े बालक, प्रतिभाशाली बालक, शारीरिक रूप से विकलांग बालक, सामाजिक रूप से विशिष्ट बालक आदि की संख्या अधिक हो, उस स्थिति में इन बालकों के साथ बैठाकर शिक्षा देना उचित नहीं है। प्रशिक्षित अध्यापकों, विषय विशेषज्ञों, निदेशकों के माध्यम से सहायक सामग्री तथा यन्त्रों की व्यवस्था करके उपयुक्त शिक्षा प्रदान की जानी चाहिए।

5. समावेशी विद्यालय योजना-यदि विशिष्ट बालक सामान्य विद्यालय के बालकों के साथ समायोजन करने में पूरी तरह असमर्थ होते हैं तो इस परिस्थिति में इन बालकों के लिए जैसे-चक्षुहीन, बहरे व गूँगे. बाल-अपराधी, कुसमायोजित, उच्च प्रतिभा सम्पन्न, सृजनात्मक समस्यात्मक आदि के लिए समावेशी विद्यालय की व्यवस्था करनी चाहिए। यद्यपि इसमें खर्च अधिक पड़ता है, इसके लिए विशेष कक्षाओं व भवनों का निर्माण, प्रशिक्षित तथा योग्य अध्यापक, चिकित्सक, निर्देशक, विशेष सहायक सामग्री की आवश्यकता पड़ती है।

6. आवासीय विद्यालय योजना-अन्धे, बहरे विकृत शरीर वाले बाल अपराधी, मानसिक रूप से विकलांग व मन्द बुद्धि तथा सांवेगिक रूप से असंतुलित आदि गम्भीर विशिष्ट बालकों के लिए आवासीय प्रकृति के नियम के अनुसार कोई भी दो प्राणी एक जैसे नहीं होते। प्राणियों की शक्ल चाहे आपस में एक जैसी लगती हो लेकिन वास्तव में वह एक जैसी नहीं होती। इसी प्रकार से प्रत्येक बच्चा दूसरे के समान लगता है लेकिन वह दूसरे के समान नहीं होता। प्रत्येक बालक में अपनी कुछ विशेषताएँ होती है जो उसे दूसरे बालकों से भिन्न करती है। शिक्षा के क्षेत्र में भी सभी बालक एक समान नहीं होते, कुछ बालक अधिक बुद्धिमान है तो कुछ बिल्कुल ही पिछड़े हुए. कुछ बालक शारीरिक दृष्टि से पूर्णतया स्वस्थ है तो कुछ अपंग हैं, कुछ बालकों को सुनने की समस्या है तो कुछ अन्धे हैं। कुछ बालक अधिक बुद्धिमान होने के कारण अपने आपको समाज में स्थापित नहीं कर पाते तो कुछ समाज में अपने आपको स्थापित कर लेते हैं। सभी बालकों में कुछ-न-कुछ अपनी विशेषताएँ होती हैं।


समावेशी शिक्षा में परिवर्तन (TRANSITION FROM SEGREGATION TO INCLUSION)

आज के आधुनिक युग में शिक्षा सभी के लिये का नारा अत्यधिक प्रचलित है। चूँकि भारत एक धर्म निरपेक्ष देश है, अतः यहाँ प्रत्येक जाति, धर्म तथा रंग-रूप के व्यक्ति रहते हैं। जिस प्रकार यह शारीरिक रूप से एक दूसरे से अलग है ठीक उसी प्रकार से यह आपस में मानसिक रूप से भिन्न है। अतः इन बालकों की शिक्षा हेतु समावेशी शिक्षा का प्रावधान रखा गया। समावेशी शिक्षा की व्यवस्था (Planning For inclusive Education) विशिष्ट बालक का क्षेत्र बहुत व्यापक होने के कारण विशिष्ट शिक्षा का भी क्षेत्र अति व्यापक है। भिन्न-भिन्न प्रकार के विशिष्ट बालकों के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार की विशिष्ट शिक्षा की व्यवस्था करनी पड़ती है। 


मुख्य रूप से विशिष्ट शिक्षा की व्यवस्था निम्नलिखित रूपों में की जानी चाहिए

1. समावेशी शिक्षा हेतु परिभ्रामी अध्यापकों की व्यवस्था विशिष्ट बालकों को उचित शिक्षा प्रदान करने के लिए विशिष्ट परिभ्रामी अध्यापकों की व्यवस्था करनी चाहिए। जिससे कि बालकों को शिक्षा व निर्देशन देने में अधिकतम सहायता प्रदान की जा सके। इस प्रकार इन समावेशी अध्यापकों के माध्यम से विशिष्ट बालकों की निर्योग्यताओं को दूर किया जा सकता है।

2. समाज सेवियों तथा विशेषज्ञों की व्यवस्था विशिष्ट बालकों को प्रशिक्षित करने के लिए समाज सेवियों तथा विशेषज्ञों की व्यवस्था करनी चाहिए। इनके लिए ये लोग अधिक लाभकारी सिद्ध होते है। विशिष्ट शिक्षा के क्षेत्र में ये विशिष्ट रूप से प्रशिक्षित होते हैं। सप्ताह में एक या दो बार यदि सम्भव हो सके तो प्रत्येक दिन इन विशिष्ट व्यक्तियों की सहायता व निर्देशन लेना चाहिए।

3. अतिरिक्त कक्षा की योजना सामान्य विद्यालयों या कक्षाओं में पढ़ रहे विशिष्ट बालकों को अलग करके अतिरिक्त कक्षा की व्यवस्था करनी चाहिए जिसके फलस्वरूप मन्द-बुद्धि तथा मानसिक रूप से पिछड़े बालकों का विकास सामान्य बालकों जैसा हो सके तथा वे कक्षा में बार-बार असफल न हो सके। कक्षा-शिक्षण के अतिरिक्त पहले या बाद में इस प्रकार की कक्षाओं की व्यवस्था करके उनकी कमियों को दूर किया जा सकता है। तथा सामान्य बालकों के साथ समायोजित किया जा सकता है।

4. समावेशी कक्षा योजना-जिस विद्यालय में शैक्षिक रूप से पिछड़े बालक, प्रतिभाशाली बालक, शारीरिक रूप से विकलांग बालक, सामाजिक रूप से विशिष्ट बालक आदि की संख्या अधिक हो, उस स्थिति में इन बालकों के साथ बैठाकर शिक्षा देना उचित नहीं है। प्रशिक्षित अध्यापकों, विषय विशेषज्ञों, निदेशकों के माध्यम से सहायक सामग्री तथा यन्त्रों की व्यवस्था करके उपयुक्त शिक्षा प्रदान की जानी चाहिए।

5. समावेशी विद्यालय योजना-यदि विशिष्ट बालक सामान्य विद्यालय के बालकों के साथ समायोजन करने में पूरी तरह असमर्थ होते हैं तो इस परिस्थिति में इन बालकों के लिए जैसे-चक्षुहीन, बहरे व गूँगे. बाल-अपराधी, कुसमायोजित, उच्च प्रतिभा सम्पन्न, सृजनात्मक समस्यात्मक आदि के लिए समावेशी विद्यालय की व्यवस्था करनी चाहिए। यद्यपि इसमें खर्च अधिक पड़ता है, इसके लिए विशेष कक्षाओं व भवनों का निर्माण, प्रशिक्षित तथा योग्य अध्यापक, चिकित्सक, निर्देशक, विशेष सहायक सामग्री की आवश्यकता पड़ती है।

6. आवासीय विद्यालय योजना-अन्धे, बहरे विकृत शरीर वाले बाल अपराधी, मानसिक रूप से विकलांग व मन्द बुद्धि तथा सांवेगिक रूप से असंतुलित आदि गम्भीर विशिष्ट बालकों के लिए आवासीय विद्यालय की योजना क्रियान्वित करनी चाहिए। इस प्रकार के विद्यालयों में शिक्षण प्रशिक्षण मात्र कक्षाओं तक सीमित नहीं रहता बल्कि विशिष्ट बालकों के प्रत्येक कार्यों में निर्देशन के साथ अभ्यास कराये जाते हैं। बालक सहायक सामग्रियों का उचित प्रयोग करके बेकार समय का सदुपयोग करने का अभ्यास कर लेता है यद्यपि कि इस प्रकार की शिक्षा व्यवस्था से बालक घर तथा समाज से अलग हो जाता है, लेकिन विशिष्टता में सुधार संभव हो जाता है।


समावेशी शिक्षा के लिए प्रशासन एवं निरीक्षण के सिद्धान्त योजनाओं से सिद्धान्त निकलते हैं तथा सिद्धान्तों पर लोग अमल करते हैं। समावेशी शिक्षा की सफलता के लिए आवश्यक है कि एक उचित प्रशासन एवं निरीक्षण की योजना बनायी जाए। इसके लिए निम्नलिखित बातें आवश्यक है

1. समावेशी शिक्षा का उत्तरदायित्व निश्चित कर लेना चाहिए। एक ऐसा व्यक्ति होना चाहिए जो समावेशी शिक्षा के लिए इमारत, सामान अध्यापक आदि का प्रबन्ध कर सके। कभी-कभी शिक्षा निदेशक इस बात के लिए उत्तरदायी होते हैं। छोटे-छोटे शहरों में अधीक्षक हो ये काम कर सकते हैं। 

2. बालकों/बालिकाओं के संरक्षकों को समावेशी शिक्षा के प्रोग्राम के उद्देश्यों तथा कार्यों से परिचित कराना चाहिए, उन्हें इसके लाभों से अवगत कराना चाहिए तथा यह बताना चाहिए कि विशेष शिक्षा कोई दण्ड नहीं है। 

3. प्रबन्धकर्ताओं को इस बात को अवश्य मानना चाहिए कि समावेशी शिक्षा से अवश्य अधिक खर्च होगा जैसे माता-पिता का अपने अक्षम बालक की शिक्षा पर अधिक खर्च होता है। अतः जिले व राज्य को भी अधिक खर्च करना चाहिए।

4. स्कूल प्रशासन का उत्तरदायित्व है कि वह बालकों का उचित निरीक्षण करवाए तथा उन्हें उचित कक्षा में रखवाए। उन्हें बालकों की आवश्यकताओं का विस्तृत अध्ययन करना चाहिए। यह निश्चित करने के लिए कि किस बालक को विशेष शिक्षा की अत्यन्त आवश्यकता है, प्रशिक्षित आदमी होने चाहिए। डाक्टरी निरीक्षण को प्रोत्साहन देना चाहिए।

5. प्रशासन को आवश्यक रूप से उचित इमारत व सामान का प्रबन्ध करना चाहिए।

6. प्रशासन के पास बालकों, बालिकाओं को विशेष कक्षा में भेजने के लिए विशेष नीति होनी चाहिए। माता-पिता को इसका कारण बता देना चाहिए। ऐसे विद्यार्थियों की शिक्षा कब समाप्त होगी यह भी निश्चित कर लेना चाहिए।

7. प्रशासन को चाहिए कि वह सभी बालकों की रुचि के अनुसार योजना बनाए ताकि विद्यार्थी अविशेष कक्षा में कुसंमजित न अनुभव करे। 

8. प्रशासन को एक ऐसी योजना बनानी चाहिए कि सभी समावेशी कक्षा के बालक, अन्य बालकों जो कि औसत है, से सम्बन्ध स्थापित कर सके।

9. प्रोग्राम में पैत्रिक शिक्षा का प्लान भी होना चाहिए। समाज तथा समुदाय को इसे समझना चाहिए। 

10. बालकों के सामाजिक तथा व्यावसायिक सामंजस्य पर विशेष जोर देना चाहिए।

11. प्रशासन को यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि समावेशी शिक्षा का आयोजन व्यक्तिगत रुचियों व आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए किया गया है।


स्थानीय स्तर पर समावेशी शिक्षा का आयोजन-स्थानीय स्तर को शिक्षा के क्षेत्र में समावेशी शिक्षा से सम्बन्धित अपने उत्तरदायित्व को पूर्णतया निभाना चाहिए। स्थानीय स्तर के जो उत्तरदायित्व है, वे अग्र प्रकार है

1. उत्तरदायित्व का निर्धारण-छोटे जिलों में इसका भार मुख्य प्रशासन अधिकारी के ऊपर होना चाहिए। जैसे-जैसे जिले का आकार बढ़ता है, वैसे-वैसे समावेशी शिक्षा का प्रोग्राम जटिल होता जाता है। बड़े जिलों में इसके लिए अधिक उत्तरदायी अधिकारी होने चाहिए।

2. समावेशी बालकों की आवश्यकताओं की खोज समावेशी बालक बालिकाओं की शिक्षा आधारभूत सामाजिक सिद्धान्तों पर आधारित है। सामान्य बालक को औसत बालक से भिन्न नहीं समझना चाहिए। उनकी भी वे सब आवश्यकताएँ हैं जो कि अन्य बालकों की है। सभी लोगों को समावेशी शिक्षा के मूल्य का ज्ञान होना चाहिए। अध्यापकों को वे विधियाँ बता देनी चाहिए। जब बालक. बलिकाओं को और अधिक समावेशी शिक्षा की आवश्यकता नहीं होती तो उन्हें सामान्य कक्षा में भेज देना चाहिए। पृथकीकरण का दर्शन विद्यार्थी, माता-पिता तथा अध्यापकों को बताना चाहिए। कक्षा का आकार निश्चित करना चाहिए। यह सब बालकों की आवश्यकता के अनुसार होना चाहिए। 

3. बालकों की पहचान बालकों की पहचान के लिए प्रशासन को विभिन्न विशेष एजेन्सियों की सहायता लेना चाहिए। स्वास्थ्य विभाग शारीरिक रूप से अयोग्य बालकों की पहचान कराने में सहायता कर सकता है। जब बालक बालिकाओं की पहचान हो जाती है तो उनका गहन अध्ययन करना चाहिए। यदि आवश्यक हो तो उन्हें मनोवैज्ञानिकों, आँख, नाक, कान के विशेषज्ञों को दिखाना चाहिए। बालक के विषय में पूर्ण रिकार्ड रखने चाहिए।

4. अध्यापकों का चुनाव-अध्यापकों को समावेशी बालकों को पढ़ाने का प्रशिक्षण भी देना चाहिए। साधारण बालकों को पढ़ाने का अनुभव समावेशी बालकों के अध्यापक के लिए बहुत आवश्यक है। एक अच्छे कुशल अध्यापक के लिए केवल प्रशिक्षण की ही आवश्यकता नहीं होती। इस बात की ओर ध्यान देना चाहिए कि उसका व्यक्तित्व अच्छा हो, उसे समावेशी बालकों में रुचि हो। समावेशी बालकों की समस्याओं को समझने के लिए उसमें सहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण हो। चूँकि एक अध्यापक बालकों को कई वर्ष तक पढ़ाता है तथा कई तरह के बालक एक कक्षा में रहते है। अध्यापक को समावेशी शिक्षा के अभिमुखीकरण कोर्स को पूरा करना चाहिए।

5. समावेशी कक्षाओं का निरीक्षण-छोटे शहरों में समावेशी कक्षा के निरीक्षण का कार्य एक सहायक या प्राइमरी निरीक्षक को देना चाहिए। बड़े नगरों में प्रत्येक स्कूल का एक निरीक्षक होना चाहिए। उसे इस क्षेत्र में प्रशिक्षित भी होना चाहिए। इस निरीक्षक को पढ़ाने का अनुभव, इस क्षेत्र में विशिष्टीकरण तथा कम-से-कम मास्टर डिग्री होनी चाहिए। इसके कार्य प्रशासन तथा निरीक्षण दोनों ही हैं। इसे पाठ्यक्रम को तैयार करना सामान का प्रबन्ध करना, अध्यापकों की नियुक्ति तथा स्थानान्तरण आदि का प्रबन्ध करना चाहिए। इन निरीक्षकों को समावेशी शिक्षा के क्षेत्र में हुए प्रत्येक परिवर्तन एवं विकास से अवगत होना चाहिए। इससे वे अपने प्रोग्राम को यथोचित रूप में विकसित कर सकते हैं। विशेष स्कूल के प्रधानाध्यापक को भी विशेष शिक्षा दी जानी चाहिए। अध्यापकों को विशेष वेतन व भत्ते देने चाहिए। उन्हें स्कूल के प्रधानाध्यापक के प्रति उत्तरदायी होना चाहिए वे सब कर्त्तव्य निभाने चाहिए जो कि साधारण कक्षा में होते हैं ताकि बालक अपने से औरों को भिन्न न माने। अध्यापकों के लिए सेवा प्रशिक्षण तथा विस्तार सेवा होनी चाहिए।

6. निर्देशन- यद्यपि विभिन्न प्रकार के विलक्षण बालकों की आवश्यकताएँ भिन्न-भिन्न होती है, उनका मुख्य उद्देश्य एक है-अच्छा सामाजिक एवं व्यक्तिगत सामजस्य नागरिक उत्तरदायित्व तथा व्यावसायिक क्षमता निर्देशन देते समय बालक से सम्बन्धित हर पहलू पर ध्यान देना चाहिए, -जैसे-शारीरिक दशा, सीखने की क्षमता, स्कूल रिकार्ड, सामाजिक सामजस्य, रुचि, ध्यान।

7. पाठ्यक्रम-समावेशी बालकों की शिक्षा के उद्देश्य भिन्न होते हैं, अतः उनके पाठ्यक्रम को विशेष रूप से तैयार करना पड़ता है। यह पाठ्यक्रम प्रत्येक बालक के लिए उसकी आवश्यकतानुसार भिन्न होता है। ये सुझाव दिये गए हैं कि औसत बालकों के कार्यक्रम में समावेशी बालक को भाग लेना चाहिए। एक अध्यापक के लिए यह अत्यन्त कठिन है कि वह हर भिन्न आयु के बालक के लिए पूर्ण समावेशी शिक्षा का प्रोग्राम बनाए बालकों को समूह कार्यक्रमों में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। अध्यापक को औसत बालकों के अध्यापक से ही सहायता लेनी चाहिए। विभिन्न प्रकार के समूहों के लिए भिन्न-भिन्न कोर्स तथा तथा पाठ्यक्रम-सामंजस्य होते हैं। बालकों को जो अन्धे है, टंकण लेखन या हस्तलिपि लिखना सिखाते है। अपाहिज बालकों को विभिन्न प्रकार के कार्य, जैसे बुनना, कातना, जेवर आदि बनाना बताया जाता है। बहरे बालकों को भाषा का ज्ञान दिया जाता है।

8. इमारत-इसके लिए अलग इमारत का भी निर्माण कराया जा सकता है। इमारत हवादार और खली होनी चाहिए। प्रशासन को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि इमारत उसी प्रकार की हो जैसी सामान्य बालकों के लिए है। उसमें बिजली का प्रबन्ध खिड़कियों, अच्छा फर्नीचर तथा खेलने का मैदान अवश्य होना चाहिए। बालक को विशेष कक्षा के लिए एक पुरानी इमारत में भेजने से न तो बालक पर ही और न ही माता-पिता पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। राज्य के शिक्षा विभाग को इमारत बनाने तथा सामान का प्रबन्ध करने में बालकों की समस्त आवश्यकताओं का ध्यान रखना चाहिए। बालकों की खाने की समस्या का भी ध्यान होना चाहिए।

9. गाँव के विशिष्ट बालक-इन बालकों को भी समावेशी शिक्षा की उतनी ही आवश्यकता है जितनी उन विशिष्ट बालकों को जो शहरों में रहते हैं। पर गाँवों में ये सेवाएँ पहुँचाना बहुत कठिन है। इन महंगी सेवाओं को गाँवों में दो या तीन बालकों के लिए नियोजित करना कठिन हो जाता है। माता-पिता भी अपने बच्चों को पढ़ाई के लिए दूर नहीं भेजते हैं। ऐसी दशा में गाँव के बालकों के लिए शहर में छात्रावास का प्रबन्ध करना चाहिए। उन्हें स्कूल ले जाने के लिए बसों का प्रबन्ध होना चाहिए जो प्रतिदिन विद्यार्थियों को घर वापस छोड़कर भी आए। राज्य सरकार को इस ओर ध्यान देना चाहिए।


राज्य स्तर पर समावेशी शिक्षा का आयोजन राज्य स्तर पर समावेशी शिक्षा का आयोजन निम्न प्रकार से किया जाता है -

1. राज्य का उत्तरदायित्व राज्य के प्रमुख का यह कर्त्तव्य है कि वह बालकों की आवश्यकताओं का पता लगाए। उनके अनुसार सुनिश्चित पढ़ाई की योजना बनवाए। राज्य स्थानीय स्तर पर प्रबन्धित स्कूलों को धन से सहायता प्रदान करे राज्य को प्रोग्राम का निरीक्षण तथा निर्देशन करना चाहिए। स्थानीय जिले के समावेशी शिक्षा के प्रोग्राम को राज्य से अधिक सहायता मिलती है और इससे स्थानीय स्तर की क्षमता का विकास होता है। 

2. प्रबन्ध तथा निरीक्षण सेवाएँ-राज्य को स्थानीय स्तर को धन देना चाहिए। प्रबन्ध निरीक्षण के सम्बन्ध में विभिन्न देशों में विभिन्न प्रबन्ध हैं। अधिकतर देशों में राज्य के शिक्षा अधिकारी को प्रोग्राम देखना पड़ता है। राज्य के इस क्षेत्र में उत्तरदायित्व अग्र प्रकार हैं 

(1) कक्षा में भर्ती होने वाले बालकों की रिपोर्ट तथा प्रोग्राम के विषय में जानकारी प्राप्त करना। 

(2) बालकों को भर्ती करने के नियम, उनका पाठ्यक्रम, अध्यापक के गुण, कक्षा का आकार, कक्षा का विशेष सामान आदि निश्चित करना।

(3) मनोवैज्ञानिक व मेडीकल देखरेख के नियम बनाना। 

(4) विशेष कक्षा के लिए अध्यापकों को प्रशिक्षित करना। 


विकलांग कल्याण विभाग द्वारा संचालित प्रमुख योजनाएँ-विकलांग कल्याण विभाग द्वारा संचालित प्रमुख योजनाएँ निम्नलिखित है :-

1. पेंशन योजना- ऐसे निराश्रित विकलांग व्यक्ति जिनकी मासिक आय 225 रु. से कम है, को 125 रु. प्रतिमाह की दर से भरण-पोषण अनुदान दिया जाता है। वर्तमान में इस योजना से लगभग 1.40 लाख व्यक्ति लाभान्वित हो रहे है। 

2. छात्रवृत्ति योजना - अध्ययनरत विकलांग बच्चों, जिनके अभिभावकों की मासिक आय 2000 रु. से कम है जो कक्षा 1-5 में 25 रु. प्रतिमाह कक्षा 6-8 में 40 रु. प्रतिमाह, कक्षा 9-12 में 85 रु. प्रतिमाह, स्नातक कक्षाओं में 125 रु. प्रतिमाह तथा स्नातकोत्तर एवं अन्य व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में अध्ययनरत छात्रों को 170 रु प्रतिमाह दर से छात्रवृत्ति प्रदान कर लगभग 20,200 छात्रों को प्रतिवर्ष लाभान्वित किया जा रहा है।

3. कृत्रिम अंग / सहायता उपकरण विभिन्न श्रेणी के विकलांगों को उनकी आवश्यकता के अनुसार 1,000 रु. की सीमा तक के कृत्रिम अंग सहायता उपकरण प्रदान किए जा रहे हैं। ऐसे विकलांग व्यक्तियों को यह सुविधा देय है, जिनकी आय 300 रु. से कम है।

4. विकलांग से शादी करने पर पुरस्कार- इस योजना के अन्तर्गत विवाहित जोड़े में से यदि पति विकलांग है तो 11,000 रु. एवं पत्नी अथवा पति-पत्नी दोनों विकलांग है तो 14,000 रु. की धनराशि अनुदान के रूप में प्रोत्साहन स्वरूप प्रदान की जाती है।

5. दुकान निर्माण योजना-उद्यमी विकलांगों को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से 20,000 रु. तक की धनराशि दुकान निर्माण हेतु दी जाती है, जिसमें 5,000 रु. अनुदान एवं अल्प दर पर 15,000 रु. का ऋण सम्मिलित है।

6. विशिष्ट विकलांग को राज्य स्तरीय पुरस्कार प्रदेश के प्रतिभाशाली विशिष्ट विकलांगों को महामहिमजी राज्यपाल के कर कमलों से प्रतिवर्ष विश्व विकलांग दिवस के अवसर पर राज्य स्तरीय पुरस्कार प्रदान किया जाता है। 

7. विभागीय संस्थाएँ–विकलांग कल्याण विभाग द्वारा प्रदेश में विभिन्न श्रेणी के विकलांगों के लिए कुल 12 विद्यालय हैं। जिसमें शरीरिक रूप से विकलांग अक्षम बच्चों के लिए 2. दृष्टि बाधित बच्चों के लिए 4, मूक बाधिर बच्चों के लिए 4, एवं मानसिक मंद बुद्धि बच्चों के लिए 2 विद्यालय प्रदेश के विभिन्न जनापदों में संचालित हैं। इसी प्रकार विभाग द्वारा शारीरिक रूप से अक्षम व्यक्तियों के लिए 6. मूक बाधिर व्यक्तियों के लिए 1 एवं दृष्टि-बाधित व्यक्तियों के लिए 3. कुल 10 प्रशिक्षण एवं उत्पादन केन्द्र भी संचालित है। उपरोक्त के अतिरिक्त भारत सरकार द्वारा विकलांगता के कई क्षेत्र में कार्यरत कई गैर कानूनी संस्थाओं को भी राज्य सरकार के माध्यम से प्रस्ताव प्रेषित किये जाने पर अनुदान प्रदान किया जाता है।

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