Recents in Beach

7 बाल- केन्द्रित शिक्षा

बाल- केन्द्रित शिक्षा

राष्ट्रीय शिक्षा- नीति, 1986 की यह मान्यता है कि मानव एक सकारात्मक सम्पत्ति एवं बहुमूल्य राष्ट्रीय साधन है जिसे सावधानीपूर्वक सहायता से पोषित एवं विकसित करना चाहिए (राष्ट्रीय शिक्षा नीति, पेज-86) इस नीति में इस बात पर भी बल दिया गया है कि हर स्तर पर गर्भावस्था से श्मशान तक प्रत्येक व्यक्ति के विकास की अलग-अलग समस्यायें एवं आवश्यकतायें हैं। अतः व्यक्ति के व्यक्तित्व एवं गरिमा का सम्मान होना चाहिए और शिक्षा व्यवस्था में उसकी आवश्यकता, रुचि, दृष्टिकोण एवं क्षमता का ध्यान रखा जाना चाहिए।


भावी पीढ़ी को इस प्रकार शिक्षित करना होगा कि उसमें आत्मविश्वास एवं दृढ़ता से समस्याओं के रचनात्मक समाधान की योग्यता विकसित हो, वे मानव मूल्यों एवं सामाजिक न्याय के प्रति निष्ठा रख सकें । इस सन्दर्भ में राष्ट्रीय शिक्षा नीति ने "एक छात्र केन्द्रित अध्ययन प्रक्रिया" (राष्ट्रीय शिक्षा-नीति पृष्ठ 11) इस मॉडयूल में कुछ दिशा-निर्देश दिए गए हैं जिनके द्वारा में छात्र केन्द्रित अध्ययन-अध्यापन की स्थिति को समझा और अपनाया जा सके।


शिक्षा के प्रति छात्र- केन्द्रित दृष्टिकोण के अन्तर्गत शिक्षक की भूमिका में परिवर्तन किया गया है। शिक्षक-शिक्षण प्रक्रिया को सहज बनाने तथा ऐसी शिक्षण पद्धति को प्रेरित करेगा जिससे छात्र में जिज्ञासा, उत्सुकता तथा स्वतन्त्र चिन्तन का विकास हो। उसमें समस्या के समाधान में क्षमता, योजना बनाने तथा उसे क्रियान्वित करने की कुशलता, स्वाध्याय द्वारा ज्ञान-प्राप्ति, अपने परिवेश का निरीक्षण करने और रचनात्मक चिन्तन का विकास होगा।


अतः छात्र केन्द्रित दृष्टिकोण का अर्थ यह है कि छात्र हमारे शैक्षिक कार्यक्रम के मुख्य आधार है न कि शिक्षक। इस दृष्टिकोण से पाठ्यक्रम छात्र की आवश्यकता, रुचि, दृष्टिकोण तथा क्षमताओं के आधार पर बनाया जाना चाहिए जिससे छात्र आवश्यक दक्षता, ज्ञान, दृष्टिकोण एवं मूल्य प्राप्त कर सके। इस प्रकार मोटे तौर पर शिक्षा का लक्ष्य केवल ज्ञान-प्राप्ति न होकर बच्चे का सर्वांगीण विकास होना चाहिए।


सामान्यतया अबतक शिक्षकों का दृष्टिकोण शिक्षक केन्द्रित था, छात्र केन्द्रित नहीं। आगे की पद्धति में, जैसा कि हम सभी जानते हैं विद्यालय में उपस्थित रहने और तथ्यों का ज्यों-का-त्यों वापस लिखने पर मुख्यतया बल दिया जाता रहा है जैसे—शिक्षक सीधे पुस्तक पाठ्यक्रम से पढ़ाते हैं और छात्र से आशा करते हैं कि वह पाठ्यपुस्तक में लिखे शब्दों को ज्यों-का-त्यों दुहराकर उत्तर लिखें। दूसरी ओर छात्र केन्द्रित दृष्टिकोण का अर्थ है कि हम शिक्षण प्रक्रिया से हटकर अध्ययन प्रक्रिया पर बल दें। इसका अर्थ है कि "सीखने के लिए सीखने की दक्षता का विकास करें जिससे वह अपने-आप सीखें तथा ज्ञान के बढ़ते भंडार की माँग एवं चुनौती का सामना करने में समर्थ हों। "


बाल-केन्द्रित शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य शैक्षिक गतिविधियों का सैद्धान्तिक दृष्टिकोण बाल केन्द्रित शिक्षा ही है जिसके प्रमुख उद्देश्य निम्न हैं 


(i) शारीरिक तथा मानसिक दक्षताओं का पूर्ण विकास।

(ii) सामाजिक कुशलताओं का विकास ।

(ii) भावनाओं का संरक्षण ।

(iv) विकास की विभिन्न अवस्थाएँ ।

(vi) विकास के सभी सोपानों का ख्याल ।

(vii) बच्चों को प्रतिभा का प्रोत्साहन ।

(v) बच्चों की आवश्यकताएँ ।


अवधारणा- यदि हम बाल केन्द्रित शिक्षा को व्यावहारिक रूप देना चाहते है तो निम्नांकित बिन्दुओं पर ध्यान देना होगा

(अ) किन्हें पढ़ाना है ? 

(ब) क्या पढ़ाना है ? 

(स) कैसे पढ़ाना है ?.


(अ) किन्हें पढ़ाना है ?-अध्यापक के रूप में हमें अपने शिक्षार्थी को भली-भाँति जानना आवश्यक है। यह काम न तो बहुत सरल है और न ही बहुत कठिन। इसके लिए हमसें बच्चों की क्षमताएँ, रुचियों एवं आवश्यकताओं को समझने की योग्यता होनी चाहिए।

6-11 आयु वर्ग के बच्चे वास्तविक जगत के बारे में सोचना आरम्भ कर देते हैं-उनके भावात्मक वैयक्तिक और सामाजिक विकास से संबंधित आवश्यकताएँ उभर कर सामने आती है जो निम्नवत्

(i) स्वीकृति-बच्चों के व्यक्तित्व को मान्यता देना।

(ii) प्रेम तथा सुरक्षा-बच्चों को विद्यालय परिवेश में पर्याप्त स्नेह तथा विश्वास प्रदान करना। 

(iii) आत्म-सम्मान – बच्चों में मर्यादा पक्ष को जागृत करना।

(iv) अपनत्व का भाव-सभी बच्चों को। समान रूप से अपना मानना । 

(v) प्रेरणा- बच्चों को हमेशा उत्साहित करते रहना।

(vi) अभिव्यक्ति बच्चों को अपनी भावनाओं को व्यक्त करने का अवसर प्रदान करना। 

(vii) सृजनशीलता-रचनात्मक क्षमता का विकास करना

(viii) निर्णय लेने की क्षमता अच्छे-बुरे में भेिद समझना।


(ब) क्या पढ़ाना है ?- पाठ्य विषय छात्रों की आवश्यकताओं, रुचियों विकास की अवस्थाओं और क्षमताओं पर आधारित होना चाहिए जिससे छात्र आवश्यक दक्षता, ज्ञान, दृष्टिकोण एवं मूल्य प्राप्त कर सके। शिक्षा का उद्देश्य केवल ज्ञान प्राप्त करना न होकर सर्वांगीण विकास होना चाहिए। अतः पाठ्यक्रम में ज्ञान दक्षता, दृष्टिकोण स्वास्थ्य नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्य, सौन्दर्य और कार्यानुभव जैसे पहलुओं का समावेश होना चाहिए।


प्रत्येक बच्चा अपने-आप विशेष होता है। इसलिए बच्चों की आवश्यकताओं, क्षेत्रीय संस्कृति तथा विशेषताओं को ध्यान में रखकर पाठ्यक्रम पर अमल किया जाना चाहिए। न्यूनतम अधिगम स्तर पर निर्धारण सभी बच्चों को एक समान शिक्षा देने के उद्देश्य से किया गया है चाहे वे किसी भी जाति रंग-रूप, स्थान या लिंग आदि के क्यों न हों। न्यूनतम अधिगम स्तर के निर्धारण क्रम में निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना चाहिए: विभिन्न विकासात्मक स्तरों के अनुरूप विभिन्न कक्षाओं या श्रेणियों के बच्चों की संज्ञानात्मक क्षमताएँ परिवेशगत दशाओं के रूप में आनुभविक वास्तविकता (Empirical reality) । 


(स) कैसे पढ़ाना है ?– बाल केन्द्रित शिक्षा के तहत अपेक्षित अधिगम तभी संभव है जब उन्हें उपयुक्त अधिगम स्थिति उपलब्ध कराई जाए। यह परिस्थिति वर्ग के अन्दर या बाहर हो सकती है। जब अधिगम परिस्थिति निम्नांकित विशेषताओं से युक्त होती है तो अधिगम को बढ़ावा मिलता है।


(i) साफ सुथरी ।

(ii) प्रेरणादायक।

(iii) सुसंगठित ।

(iv) आवश्यक उपकरण।

(v) स्वयं करके सीखने का अवसर।

(vi) प्यार तथा अपनत्व का वातावरण। 

(vii) शिक्षक के व्यवहार में माधुर्य।


अधिगम प्रक्रिया को प्रभावी बनाने हेतु शिक्षकों को निम्नांकित बिन्दुओं पर ध्यान देना होगा 

● अधिगम हो रहा है या नहीं, यह सुनिश्चित करना

● जानकारी देने के साथ-साथ समझ विकसित करना स्मरण कराने के साथ-साथ रचनात्मक सोच को बढ़ावा देना, बच्चों की रुचियों को जानना स्वाध्याय की आदत विकसित करना, बच्चों में खोज प्रवृत्ति जागृत करना • शिक्षक को मार्गदर्शक के रूप में कार्य करना ।

● बाल केन्द्रित शिक्षा की अवधारणा के अनुकूल शिक्षण कार्य करने के लिए शिक्षक को अपने दृष्टिकोण तथा अध्ययन शैली में परिवर्तन लाना होगा। इसके लिए उन्हें निम्नलिखित कार्य करने होंगे पाठ से सम्बन्धित पूर्व जानकारी प्राप्त करना, प्रश्नों के सही उत्तर प्राप्त न होने की स्थिति में आवश्यकतानुसार संकेत देकर सही उत्तर तक पहुँचने में मदद करना, सही उत्तर मिलने पर शाबाशी देना ।

● किसी की परिस्थिति में हतोत्साहित नहीं करना ।

● पाठ प्रवेश कैसे करें ? पाठ-विषय प्रवेश बच्चों के अनुकूल हो होना चाहिए। मार्गदर्शन के तौर पर विभिन्न विषयों से संबंधित विषय-प्रवेश के उदाहरण दिये जा रहे हैं। 

(i) भाषा- इसमें भाषा की कुशलताओं पर बल देना चाहिए। 

(ii) गणित- इसमें दक्षताओं पर आधारित क्रियाकलाप आयोजित करेंगे ताकि बच्चों में समस्या-समाधान की योग्यता विकसित हो ।

(iii) पर्यावरण अध्ययन– विषय के अनुरूप अधिगम परिस्थिति प्रदान कर बच्चों को उनके अनुभव के आधार पर सीखने का अवसर प्रदान करेंगे।


विषय-वस्तु के अनुसार शिक्षण में जाँच-खोज पद्धति अपनाने पर बच्चों को सीखने तथा अपनो मानसिक कुशलता को व्यवहार में लाने का अवसर मिलता है। रोजगारोन्मुखी अधिगम प्रक्रिया से बच्चों में परिकल्पना की दक्षता, निरीक्षण की दक्षता तथा निष्कर्ष निकालने की योग्यता बढ़ती है।

समस्याओं को हल करनेवाली गतिविधियों या क्रियाकलापों से बच्चों की प्रतिभागिता बढ़ती है। अतः शिक्षण ऐसा हो कि बच्चों को कुछ खोजना पड़े या किसी समस्या का हल पैदा करना पड़े जिसमें अध्यापक का सिर्फ मार्गदर्शन ही अपेक्षित है।

भिन्न-भिन्न बच्चे भिन्न-भिन्न तरीकों से सीखते है। कुछ बच्चे जल्दी सीखते हैं और कुछ बच्चे धोमी गति से सीखते हैं। जो बच्चे जल्दी सीखते हैं, उन्हें शिक्षण कार्यक्रम में सहयोगी बना लेना चाहिए। ऐसा करने से सामान्य गति से सीखने वाले बच्चे प्रोत्साहित होंगे और अन्य बच्चों के उपचारात्मक शिक्षण में सहयोग मिलेगा। धीमी गति से सीखनेवाले बच्चों के लिए आवश्यकतानुसार छोटे-छोटे दल बना लेना चाहिए। शिक्षक उन्हें आवश्यकतानुसार न्यूनतम अधिगम के स्तर तक लाने का प्रयास करेंगे।


→ मूल्यांकन कैसे करें ? 

बाल-केन्द्रित शिक्षा का उद्देश्य विकास की सभी पहलुओं से संबंधित क्षमताओं का विकास करना है। अतः मूल्यांकन क्षमताओं को सम्माप्ति के अनुकूल होना चाहिए।


विकास के सभी पहलुओं यथा-ज्ञान, कौशल, क्षमता, सामाजिक, नैतिक, भावात्मक आदि का भी मूल्यांकन किया जाना चाहिए ताकि समप्र रूप से मूल्यांकन सम्भव हो सके। वर्तमान रिपोर्ट-कार्ड प्रथा जिसमें मूल्यांकन सिर्फ अंक या प्रतिशत के रूप में  विषयवार किया जाता है- दोषपूर्ण है क्योंकि, एक तो इसमें असंज्ञानात्मक पहलुओं के मूल्यांकन का कोई स्थान नहीं होता और दूसरे प्राप्तांकों की तुलना के आधार पर अधिकांश बच्चे में हीनता का भाव आता है। इसलिए मूल्यांकन पद्धति ऐसी होनी चाहिए जिसमें अन्य छात्रों के साथ तुलना के बजाय उसकी पूर्व की सम्प्राप्ति के क्रम में तुलना हो। ऐसा होने से बच्चों में सकारात्मक दृष्टिकोण विकसित होगा और वे अपनी कमियों को दूर करने में उन्मुख होंगे। इसमें अभिभावकों को भी अपने बच्चों का निदानात्मक परीक्षण हो जायगा ओर तदनुकूल उपचारात्मक शिक्षक की व्यवस्था भी संभव होगी। इस तरह यह कहा जा सकता है कि मूल्यांकन रैंक और ग्रेड पर आधारित न होकर उसके पूर्व की सम्प्राप्ति के क्रम में होना चाहिए।

Post a Comment

0 Comments