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1 समावेशी शिक्षा INCLUSIVE EDUCATION

1 समावेशी शिक्षा [INCLUSIVE EDUCATION]


प्रस्तावना (INTRODUCTION)

प्रत्येक बालक में कुछ ऐसे गुण होते हैं जो जन्मजात पाये जाते हैं। यह गुण प्रायः अनुवांशिकता से सम्बन्धित भी हो सकते हैं, अथवा नहीं भी, इन्हीं गुणों के आधार पर ही बालकों का शैक्षिक स्तर निर्भर करता है। सामान्य बालकों का शैक्षिक स्तर उनकी बुद्धिलब्धि तथा क्षमताओं के आधार पर ही तय किया जाता है। ठीक इसी प्रकार वह बालक जो कि विशिष्ट बालक होते हैं उन्हें भी शिक्षा के पूर्ण अवसर प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त होता है। इन बालकों को दी गई शिक्षा अलग-अलग प्रकार की होती है क्योंकि इन बालकों का शैक्षिक स्तर अलग-अलग होता है। अतः प्रस्तुत पुस्तक के अन्तर्गत हम विशिष्ट बालकों को दी जाने वाली समावेशी शिक्षा के विषय में अध्ययन करेंगे।


समावेशी शिक्षा की अवधारणा (CONCEPT OF INCLUSIVE EDUCATION)

समावेशी शिक्षा वह है जिसमें सामान्य विद्यालय में बाधित व सामान्य बालकों को एक साथ शिक्षा प्रदान की जाती है। समावेशी शिक्षा का आधुनिक युग में विशेष महत्त्व है। शिक्षाशास्त्रियों व मनोवैज्ञानिकों में इस बात को लेकर काफी मतभेद रहे हैं कि बालकों को विशिष्ट शिक्षा विशिष्ट विद्यालयों में दी जाये या फिर इनको भी सामान्य विद्यालयों में ही पढ़ाया जाये। अतः यह निर्णय लिया गया कि जहाँ तक सम्भव हो इस प्रकार के बालकों को सामान्य विद्यालयों में ही पढ़ाया जाये ताकि उनमें हीन भावना न आये और मुख्य धारा से अलग न हो। विद्यालयों में विभिन्न प्रकार के बच्चे पढ़ने के लिये आते हैं। जो बच्चे शारीरिक रूप से विकलांग होते हैं, वे एकदम से पहचाने जाते हैं लेकिन जो बालक मानसिक रूप से बाधित होते हैं उनकी पहचान करना काफी मुश्किल कार्य है। जो बालक शारीरिक या मानसिक रूप से अपंग होते हैं वे सामान्य बच्चों की अपेक्षा कुछ कम सीख पाते हैं। विशिष्ट शिक्षा का मुख्य उद्देश्य इस प्रकार के बच्चों में छिपी हुई योग्यता को उभारना है ताकि उसकी योग्यता का प्रयोग देश के हित में किया जा सके। आज समय की यह आवश्यकता है कि केवल प्रतिभावान बालकों की तरफ ही ध्यान न दिया जाये बल्कि जो बालक सामान्य से कम है उनकी तरफ भी उचित ध्यान दिया जाये ताकि वे भी देश की मुख्य धारा में आकर अपनी योग्यताओं का देश की उन्नति में योगदान कर सकें।

इस बात की आवश्यकता है कि वह 3 Rs (Reading, Writing and Mathematics) के साथ विशिष्ट बालक किसी भी क्षेत्र में दूसरे सामान्य बालकों से पीछे न रहें। असमर्थ बालकों के लिये विशेष विद्यालयों की स्थापना की शुरुआत 18वीं शताब्दी के मध्य में हुई थी, लेकिन जब से मनोविज्ञान ने शिक्षा के क्षेत्र में प्रवेश किया है तो यह महसूस किया गया कि हमें इन विशिष्ट बालकों को अलग नहीं करना चाहिये क्योंकि यह मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, आर्थिक व शिक्षा की दृष्टि से उचित नहीं है। क्रुकशंक (Cruik Shank) के अनुसार, "विशिष्ट बालकों की शिक्षा सम्पूर्ण शिक्षा का हिस्सा है। उनके अनुसार जहाँ तक मुमकिन हो विशेष कक्षाओं को हतोत्साहित करना चाहिये। विशेष कक्षायें तभी लगानी चाहिये जब कोई दूसरा रास्ता न हो।

समावेशी शिक्षा का प्रत्यय अभी नया-नया है तथा सामान्य लोगों ने इसका महत्त्व समझना शुरू कर दिया है। स्वयं सेवी संस्थाएँ भी इस क्षेत्र में सफलतापूर्वक प्रभावी रूप से काम कर रही है। शिक्षाशास्त्रियों, मनोवैज्ञानिकों का यह मानना है कि बच्चों को विशेष विद्यालयों की अपेक्षा सामान्य विद्यालयों में ही शिक्षा देनी चाहिये। छात्र को सामान्य विद्यालय में प्रवेश दिया जाता है तो उसको न केवल सामान्य अध्यापक की सुविधाएँ उपलब्ध होती है बल्कि उसके लिये एक प्रशिक्षण प्राप्त अध्यापक की सेवायें भी उपलब्ध होती हैं। अमेरिका में 1975 ई. अमेरिकन कांग्रेस ने प्रत्येक अक्षम बच्चे को शिक्षा का एक कानून पास किया था। इस कानून का मुख्य उद्देश्य अक्षम बालकों को देश की मुख्य धारा (Main-streaming) से जोड़ना था। मुख्य धारा से यह अभिप्राय है कि शारीरिक तथा मानसिक दोष वाले बालक सामान्य बालकों के साथ पढ़ेंगे तथा उनको विशेष प्रकार की सहायता दी जायेगी।

भारत में भी समावेशी शिक्षा अमेरिका के मुख्य धारा आन्दोलन' का ही परिणाम है। इस आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य विकलांगों को मुख्य धारा में लाना है। आंशिक रूप से अपंग बालकों को सामान्य कक्षा में पढ़ाने तथा उनकी अच्छी देखभाल, अध्यापक तथा दूसरी सहायता देने से अच्छे परिणाम सामने आये हैं। इस बात पर अधिक जोर दिया जा रहा है कि कम अपंग बालकों को विशेष शिक्षा की नहीं अपितु समावेशी व मुख्य धारा की आवश्यकता है।

समावेशी शिक्षा के अन्तर्गत सभी प्रकार के असमर्थ बालकों को सामान्य कक्षाओं में नहीं पढ़ाया जा सकता है। इसका मुख्य उद्देश्य यह है कि असमर्थ बालकों को तभी सामान्य कक्षा में डाला जाये जब वहाँ का वातावरण उसकी आवश्यकताओं के अनुकूल हो और वे अपने आपको दूसरे बच्चों से अलग महसूस न करे।


समावेशीवंशिक्षा की विशेषताएँवं (CHARACTERISTICS OF INCLUSIVEOEDUCATION)

समावेशी शिक्षा की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित है
1. सभी के लिये विद्यालय में सब हेतु शिक्षा (Education for All in the Schools for All)—समावेशी शिक्षा के अन्तर्गत बाधित (शारीरिक रूप से विकलांग) बच्चों एवं सामान्य बच्चों हेतुवं सभी स्कूलों में सभीवं के लिये शिक्षावं के प्रावधानवं किये गये हैं।

2. विभिन्नताओं की पहचान तथा चिन्ता करना (Recognizing and Taking Care of Diversity)– समावेशी शिक्षा पद्धति बच्चों की शारीरिक, बौद्धिक, मानसिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक आदि अनेक विभिन्नताओं की पहचान करती है। उन्हेंवं अंगीकृत कर तदनुसार जरूरतोंवं को ध्यान में रखते हुएवं संज्ञानात्मक, संवेगात्मकवं तथा सृजनात्मक विकासवं के अवसर उपलब्धवं कराती है।

3. विशिष्ट शैक्षिक जरूरतों वाले बच्चों की स्वीकृति एवं समर्थन (Acceptance and Support to Children Having Special Educational Needs)– समावेशी शिक्षा विशिष्ट शैक्षिक जरूरतों वाले बच्चों यथा-शारीरिक रूप से बाधित श्रवण, दृष्टि व वाक् बाधित, मानसिक रूप से असमर्थ आदि करीब सभी प्रकार के बच्चों को उनकी वर्तमान शारीरिक अथवा मानसिक अवस्था में स्वीकृत करती है तथा उन्हें समर्थन प्रदान करती है, जिससे उन्हें विकास के इष्टतम अवसर प्राप्त हो सकें।

4. शिक्षा एक मौलिक अधिकार (Education as a Basic Right)- समावेशी शिक्षा, शिक्षा के मौलिक अधिकार को सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक रूप में स्वीकृत करती है। हालांकि शिक्षा की अन्य प्रणालियों में भी बच्चों के शिक्षा के अधिकार को स्वीकृत किया गया है, परन्तु समावेशी शिक्षा पद्धति में इस अधिकार की भावना सर्वाधिक विद्यमान है। इस शिक्षा पद्धति में यह प्रावधान किया गया है कि किसी भी विद्यालय द्वारा किसी भी निम्न शारीरिक, मानसिक तथा आर्थिक स्तर के बच्चे को प्रवेश लेने के अधिकार से वंचित नहीं रखा जा सकता है।

5. विभिन्नताएँ कोई समस्या नहीं (Diversity is Not a Plight)- इस शिक्षा पद्धति में बच्चों की बढ़ती हुई विभिन्नताओं को कोई समस्या नहीं समझा जाता है। भाषा, धर्म, लिंग, संस्कृति, सामाजिक एवं शारीरिक मानसिक गुणों की विभिन्नता बच्चों को परस्पर सीखने सामाजिक रूप से सह-सम्बन्धित होने एवं समायोजित होने के दुर्लभ अवसर उपलब्ध कराती है।

6. सुदृढ़ नीतियाँ तथा नियोजन (Stronger Policies and Planning) – समावेशी शिक्षा में शिक्षा के अधिकार की रक्षा करने एवं उसे लागू करने हेतु राष्ट्रीय व राज्य स्तर पर नीतियाँ सुदृढ़ व स्पष्टवं है और इनवं नीतियोंवं का नियोजन भी बड़े सफल तरीकेवं से किया जा रहा है यही वजहवं है कि गत दसवं वर्षों में बच्चों की शिक्षावं विशेषकर असमर्थ बच्चोंवं के प्रति स्कूलों, अध्यापकोंवं एवं समाज की अभिवृत्ति में अधिकाधिकवं बदलाव देखने को मिला है।

7. विद्यालय का प्रयत्न अभियोजन (Adaptation on the part of the School)– समावेशी शिक्षा के अन्तर्गत स्कूल विद्यार्थियों की जरूरतों के मुताबिक ही अभियोजन करता है। इस शिक्षा पद्धति में सामान्य शिक्षण पद्धति की भाँति बच्चों को स्कूल के साथ अभियोजन नहीं करना पड़ता।

समावेशी शिक्षा की आवश्यकताएँ (NEEDS OF INCLUSIVE EDUCATION)

कुछ शिक्षाविद् विशिष्ट शिक्षा के पक्षधर नहीं हैं। उनके अनुसार यह शिक्षा के अवसरों के समान नहीं है तथा बालकों के विचारों में भिन्नता पैदा होती है। सामान्य कक्षाएँ अपंग बालकों में हीन भावना उत्पन्न करती है। कुछ ही समयएँ पहले मनोवैज्ञानिकों ने विचार दिया है कि समावेशीएँ शिक्षा हमारे सामान्य विद्यालयों में दीएँ जाये जिससे सभी बालकोंएँ को शिक्षा के समान अवसर मिलें। शिक्षाविद्एँ भी इस प्रकारएँ की शिक्षाएँ के पक्षधरएँ हैं तथा इसेएँ निम्न कारणोंएँ से उचित बताते हैं-
1. सामान्य मानसिक विकास सम्भव है (Normal Mental Growth is Possible) विशिष्ट शिक्षा में मानसिक जटिलता मुख्य है। अपंग बालक अपने आपको दूसरे बालकों की अपेक्षा तुच्छ तथा हीन समझते हैं जिसके कारण उनके साथ पृथकता से व्यवहार किया जा रहा है। समावेशी शिक्षा व्यवस्था में, अपंगों को सामान्य बालकों के साथ मानसिक रूप से प्रगति करने का अवसर प्रदान किया जाता है। प्रत्येक बालक सोचता है कि वह किसी भी प्रकार से किसी अन्य बच्चे से तुच्छ रहा है। इस प्रकार समावेशी शिक्षा पद्धति बालकों की सामान्य मानसिक प्रगति को अग्रसर करती है।
2. सामाजिकएँ एकीकरण एँको सुनिश्चित करतीएँ है (Social Integration is Ensured) — अपंगएँ बालकोंएँ में कुछ सामाजिकएँ गुण बहुत संगत होतेएँ हैं। जब वे सामान्य बालकों के साथ शिक्षा पाते है। अपंग बालक अधिक संख्या में सामान्य बालकों का संग पाते हैं तथा एकीकरणता के कारण वे सामाजिक गुणों को अन्य बालकों के साथ ग्रहण करते हैं। उनमें सामाजिक, नैतिक गुण, प्रेम, सहानुभूति, आपसी सहयोग आदि गुणों का विकास होता है। विशिष्ट शिक्षा व्यवस्था में छात्र केवल विशिष्ट ध्यान ही नहीं परन्तु विस्तार में शिक्षण तथा सामाजिक स्पर्धा की भावना विकसित होती है।
3. समावेशी शिक्षा कम खर्चीली है (Integrated Education is less Expensive) — निःसन्देह विशिष्ट शिक्षा अधिक महँगी तथा खर्चीली है। इसके अलावा विशिष्ट अध्यापक एवं शिक्षाविदों के लिये प्रशिक्षण कार्यक्रम भी अधिक समय लेते हैं। दूसरे दृष्टिकोण से समावेशी शिक्षा कम खर्चीली तथा लाभदायक है। विशिष्ट शिक्षा संस्था को बनाने तथा शिक्षण कार्य प्रारम्भ करने के लिये अन्य कई स्रोतों से भी सहायता लेनी पड़ती है जैसे प्रशिक्षित अध्यापक विशेषज्ञ चिकित्सक (Physiothera pist) आदि। अपंग बालक की सामान्य कक्षा में शिक्षा पर कम खर्च आता है।
4. समावेशी शिक्षा के माध्यम से एकीकरण सम्भव है (Integration is Possible through Integrated Education) विशिष्ट शिक्षण व्यवस्था की अपेक्षा समावेशी शिक्षण व्यवस्था में सामाजिक विचार-विमर्श अधिक किये जाते हैं, अर्थात् उच्चारण अधिक है। अपग तथा सामान्य बालक में सामान्य शिक्षा के अन्तर्गत एक प्राकृतिक वातावरण बनाया जाता है। इस वातावरण में अपने सहपाठियों से सीखना, स्वीकार करना तथा स्वयं को दूसरों द्वारा स्वीकारएँ कराया जाना समावेशीएँ शिक्षा द्वारा सम्भवएँ है। सामान्य वातावरणएँ में छात्र उपयुक्तताएँ की भावना तथा भावनात्मकएँ समायोजन का विकासएँ होता है।
5. शैक्षिक एकीकरण सम्भव है (Academic Integration is Possible) शैक्षिक योग्यता सामान्यता समावेशी शिक्षा के वातावरण द्वारा सम्भव है। शिक्षाविदों का ऐसा विश्वास है कि विशिष्ट शिक्षा संस्था एक बालक के प्रवेश के पश्चात् समान शैक्षिक योग्यता रखने वाले अपंग बालक उनके गुणों को ग्रहण करता है। शिक्षाविदों को यह भी मालूम होता है कि विशिष्ट विद्यालयों में छात्र तथा अपंग छात्र शिक्षा के पूर्ण ग्राही (ग्रहण करने वाले) नहीं होते। सामान्य विद्यालयों में बाधित छात्रों कोएँ प्रवेश दिलाने के कारण वह ठीकएँ प्रकार से शिक्षण ग्रहण करने में असमर्थएँ होते हैं। एक प्रकार से कहा जा सकताएँ है कि लचीलेएँ वातावरणतथाएँआधुनिक पाठ्यक्रमएँ के साथ समावेशीएँशिक्षाएँ शैक्षिक एकीकरण लाती है।
6. समानता केएँसिद्धान्त का अनुपालनएँ करना है (Principle of Equality is Main tained)–भारत मेंएँ सामान्य शिक्षाएँ व्यापक रूप से विस्तार कीएँ संवैधानिक व्यवस्था कीएँ गई है और साथ-साथ शारीरिक रूप से बाधितएँ बालकों के लिये शिक्षाएँ को व्यापक रूप देना भीएँ संविधान के अन्तर्गत दियाएँ गया है। समावेशी शिक्षा के वातावरण के माध्यमएँ से समानता के उद्देश्य कीएँ भी प्राप्ति की जानीएँ चाहिये, जिससे कोईएँ भी छात्र अपनेएँ आपको दूसरों कीएँअपेक्षा हीन न समझे।

समावेशी शिक्षाहैका महत्त्वहै (IMPORTANCE OF INCLUSIVE EDUCATION)

पहले ऐसा माना जाता था कि असमर्थ बालकों को अलग से विशिष्ट शिक्षा प्रदान करनी चाहिये क्योंकि उनकी आवश्यकताएँ सामान्य बालकों से अलग होती हैं। उनके लिये विशेष रूप से प्रशिक्षित अध्यापकों की आवश्यकता होती है जो उनको उनकी आवश्यकतानुसार शिक्षा प्रदान करते हैं। कई आलोचक इस बात को लेकर आलोचना करते हैं कि विशिष्ट शिक्षा बच्चों को शिक्षा के बराबर अवसर प्रदान करने की अपेक्षा पृथक्ता की भावना पैदा करती है। इस शिक्षा से असमर्थ बालकों में हीन भावना पैदा होती है। समावेशी शिक्षा का महत्व निम्नलिखित कारणों से है
1. शैक्षिक वातावरण (Academic Atmosphere) जब असमर्थ बालक को सामान्य विद्यालय में भेजा जाता है तो वह शैक्षिक तौर पर अपने आपको विद्यालय में समायोजित कर लेता है तथा उसके मन में यह विचार नहीं आता कि वह दूसरे बालकों की अपेक्षा किसी भी क्षेत्र में कम है। अध्यापक तथा दूसरे कर्मचारियों का सहयोग व व्यवहार भी उसको अनुकूल परिस्थितियाँ प्रदान करता है तथा बालक शैक्षिक दृष्टि से उन्नति करता है।
2. कम खर्चीली (Less Expensive)–भारत एक विकासशील देश है तथा विकास के लिये अधिक धन की आवश्यकता होती है। असमर्थ बालकों के लिये सभी प्रकार के शैक्षिक कार्यक्रमों का प्रबन्ध करने के लिये अधिक पैसे की आवश्यकता होती है। इनके लिये विशेष रूप से प्रशिक्षण प्राप्त अध्यापक, मनोवैज्ञानिक तथा डॉक्टर आदि की आवश्यकता पड़ती है जबकि सामान्य विद्यालयों में इस प्रकार की काफी सुविधाएँ पहले से ही उपलब्ध होती है। विशिष्ट बालकों को सामान्य विद्यालयों में पढ़ाना कम खर्चीला होता है। इस दृष्टि से समावेशी शिक्षा अधिक सस्ती है।
3. मानसिक विकास (Mental Growth) असमर्थ बालकों को विशिष्ट शिक्षा अलग विद्यालयो में निपुण व प्रशिक्षित अध्यापकों की देखरेख में प्रदान की जाती है। लेकिन असमर्थ बालकों में इस बात को लेकर मानसिक हीनता विकसित हो जाती है कि हमें सामान्य बालकों के साथ क्यों नहीं पढ़ाया जा रहा है जबकि हम भी उन जैसे ही हैं। इसका उन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है और वह उतना ज्ञान प्राप्त नहीं कर पाते जितना कि उनको करना चाहिये। लेकिन समावेशी शिक्षा में असमर्थ बालकों को • सामान्य विद्यालय में सामान्य बालकों के साथ शिक्षा प्रदान की जाती है। साधारण बालकों की तरह शिक्षा प्राप्त करने से उनमें हीनभावना का विकास नहीं होता बल्कि आत्म-सम्मान की भावना का विकास होता है।
4. सामाजिक मूल्यों का विकास (Development of Social Values ) – शिक्षा का उद्देश्य बालकों को केवल शिक्षित करना नहीं है बल्कि उनका पूर्ण विकास करना है। सामान्य विद्यालयों में असमर्थ बालकों को शिक्षा देने में उनमें सामाजिक गुणों का भी विकास होता है क्योंकि विद्यालय में समाज के सभी वर्गों के बालक पढ़ने के लिये आते हैं। उनके साथ मिलकर असमर्थ बालकों में समाजीकरण की भावना का विकास होता है। इस प्रकार से असमर्थ बालकों में भी प्यार, दयालुता, समायोजन, सहायता, भाई-चारा आदि सामाजिक गुणों का विकास होता है।
5. समानता का सिद्धान्त (Principle of Equality) भारतीय संविधान में प्रत्येक बालक को बिना किसी भेदभाव के एक समान शिक्षा देने की बात की गई है। हम शिक्षा प्रदानहैकरने के लिये किसी प्रकारहैका भेदभाव नहीं करहैसकते। इस उद्देश्य को पूरा करने के लियेहैअसमर्थ बालकों को समावेशीहैशिक्षा देना अति आवश्यक है।
6. प्राकृतिक वातावरण (Natural Environment) सामान्य विद्यालयों में असमर्थ बालको को प्राकृतिक वातावरण प्राप्त होता है। जब असमर्थ बालक सामान्य बच्चों के साथ साधारण विद्यालयों में शिक्षा प्राप्त करते हैं तो उनमें इस भावना का विकास नहीं होता कि वे किसी भी प्रकार से सामान्य बालकों से कम है। सामान्य बालक भी उनको अपना साथी समझने लग जाते हैं तथा असमर्थ बालक अपने आपको सहजता से उनके साथ समायोजित कर लेते हैं।
उपरोक्त तथ्यों को ध्यान में रखकर हम कह सकते हैं कि विशिष्ट शिक्षा की अपेक्षा असमर्थ बालक को सामान्य विद्यालय में ही शिक्षा प्रदान करनी चाहिये। सामान्य शिक्षा के साथ-साथ उनकीहैआवश्यकता के अनुसार उनके लियेहैविशेष कक्षाओं का प्रबन्धहैकरना चाहिये तथा उनके लिये प्रशिक्षणहैप्राप्त अध्यापकों का प्रबन्धहैभी करना चाहिये।

समावेशी शिक्षा के सिद्धान्त (PRINCIPLES OF INCLUSIVE EDUCATION)

समावेशी शिक्षा को मुख्यतः निम्नलिखित सिद्धान्तो पर आधारित किया गया है
1. व्यक्तिगत रूप से भिन्नता (Individual difference)-व्यक्तिगत रूप से प्रत्येक व्यक्तियों में भिन्नता पाई जाती है। यह भिन्नता रंगरूप तथा व्यक्तित्व आदि में पाई जाती है। विशिष्ट बालकों को उनके व्यक्तित्व आदि के अनुसार ही शिक्षित किया जाता है। जैसे प्रतिभावान छात्रों को अधिक विस्तारपूर्वक पढ़ाया जाता है तथा मन्दबुद्धि व मन्द अधिगम बालकों को प्रत्येक कार्य को धीरे-धीरे सिखाया जाता है तथा कुछ बालक ऐसे होते हैं, जो बिल्कुल भी रुचिपूर्ण तरीकों से पढ़ाई नहीं करते, उनको शिक्षा के प्रति जाग्रत करना ही समावेशी शिक्षा का मुख्य सिद्धान्त होता है। अतः व्यक्तिगतहैभिन्नताओं के अनुसार हीहैछात्रों को समावेशी शिक्षाहैप्रदान की जा सकती है। 
2. माता-पिता का सहयोग प्रदान करना ( To Create Parental Participation)-समावेशी शिक्षा के अन्तर्गत माता-पिता का सहयोग होना अति आवश्यक है यदि माता पिता पूर्णतः सहयोग देंगे तभी विशिष्ट छात्रों को उचित प्रकार से समावेशी शिक्षा प्रदान की जा सकती है।
3. भेदभाव रहित शिक्षा (Non Discriminatory Education)-भेदभाव रहित शिक्षा हेतु सर्वप्रथम छात्रों की पहचान की जानी अति आवश्यक है क्योंकि इसके आधार पर ही छात्रों को वर्गीकृत किया जा सकता है तथा उन्हें शिक्षा प्रदान की जा सकती है।
4. विशिष्ट कार्यक्रमों द्वारा शिक्षा (Education Through Special Programme) - विशिष्ट शिक्षा हेतु कई विशिष्ट कार्यक्रमों को लागू किया जाता है। शारीरिक रूप से बाधित छात्रों की शिक्षा हेतु उनके माता-पिता को विद्यालय का पूर्ण सर्वे करने का अधिकार प्राप्त होता है। यदि माता-पिता शिक्षण संस्था की कार्यप्रणाली से सन्तुष्ट नहीं होते हैं तो वह इच्छानुसार बालकों को शिक्षण संस्थाओं से निकालकर किसी अन्य शिक्षण संस्था में भेज सकते हैं। अतः विशिष्ट बालको को विशिष्ट कार्यक्रमों के द्वारा ही उचित शिक्षा प्रदान की जा सकती है।
5. वातावरण नियन्त्रणपूर्ण होना (Restrictive Environment)- जहाँ तक उचित हो, प्रत्येक शारीरिक बाधित बालकों को निःशुल्क उपयुक्त शिक्षा मिलनी चाहिये। सामान्यतः शिक्षा संस्थाओं में किसी बालक को स्वीकार अथवा अस्वीकार करने का विकल्प किसी विद्यालय की व्यवस्था में नहीं है। अतः इन पिछड़े बालकों हेतु विशिष्ट शिक्षा का प्रबन्ध किया जाना अति आवश्यक होता है तथा विशिष्ट कक्षाएँ अवश्य दी जानी चाहिये।


समावेशी शिक्षा का लाभ (ADVANTAGES OF INCLUSIVE EDUCATION)

मानव-योनि में जन्म लेने के फलस्वरूप प्रत्येक व्यक्ति को प्रकृति द्वारा प्राप्त समस्त प्रकार की सुविधाओं का उपभोग करने का अधिकार है। अतः विशिष्ट बालक भी समाज का एक अभिन्न अंग होता है। उनके लिये समावेशी शिक्षा की आवश्यकता परमावश्यक हो जाती है। समावेशी शिक्षा से सम्बन्धित सुविधायें देकर विशिष्ट बालकों को किस प्रकार से लाभ पहुँचाया जा सकता है। जो निम्न प्रकार सेरस्पष्ट किया जा सकतारहै
1. वैयक्तिक भिन्नताओं के फलस्वरूप समावेशी शिक्षा–बालकों में वैयक्तिक भिन्नतायें इस सीमा तक होती है, जिसमें अधिकांश विशिष्ट बालक पूर्णरूपेण से विचलित हो जाती हैं। इन्हें सामान्य बालकों की श्रेणी में रखकर शिक्षा देना कठिन होता है। सामान्य शिक्षण पद्धतियों तथा शिक्षा व्यवस्था से इन्हें लाभ प्राप्त नहीं हो पाता है। नेत्रहीन बालक सामान्य कक्षाओं में लिख-पढ़ नहीं सकते क्योंकि यह देखने में अक्षम होते हैं। इनके लिये अलग विशेष शिक्षा की आवश्यकता होती है। इसी प्रकार प्रतिभाशाली बालक तथा मन्दबुद्धि बालक सामान्य कक्षाओं से लाभान्वित नहीं हो पाते जिसके इन बालकोंरके लिये विशेष शिक्षारकी व्यवस्था की जातीरहै।
2. अधिकतम विकास के लिये जनतन्त्र में विशिष्ट बालकों के लिये शिक्षा इसलिये आवश्यक होती है कि इन बालकों का अधिक से अधिक विकास हो सकें ताकि उनमें निहित क्षमतायें प्रस्फुटित हो सकें जिससे कि भविष्य में अच्छे प्रौढ़ बनकर समाज तथा देश को लाभ पहुँचा सके तथा वे सबके साथ मिलकर कार्य कर सकें।
3. समायोजन समस्या को दूर करने के लिये समावेशी शिक्षा प्रत्येक विशिष्ट बालकों में कुसमायोजिता सम्मिलित होती है। इस कुसमायोजन को दूर करने के लिये विशेष शिक्षा की आवश्यकता होती है। क्योंकि परिवार तथा समाज के द्वारा इनका तिरस्कृत होता है। इसके लिये विशिष्ट शिक्षा की व्यवस्था करके इन कमियों को दूर किया जा सकता है।
4. कुण्ठा एवं ग्रन्थियों को समाप्त करने के लिये समावेशी शिक्षा मंदबुद्धि तथा पिछड़े बालक सामान्य कक्षाओं में बार-बार असफल होने के फलस्वरूप ग्रन्थियों से युक्त हो जाते हैं, जिससे कुण्ठा की मात्रा अधिक हो जाती है, जिसके फलस्वरूप उनका विकास अवरुद्ध होने लगता है। इसलिये इनसे मुक्ति पाने के लिये विशिष्ट शिक्षा की आवश्यकता होती है।
5. विशिष्ट बालकों की समस्याओं को समझने के लिये समावेशी शिक्षा अभिभावकों शिक्षकों तथा शिक्षक प्रबन्धक विशिष्ट बालकों की समस्याओं को अच्छी तरह से समझकर विशेष शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिये जिससे उन्हें लाभ प्राप्त हो
6. समस्यात्मक बालक बनने से रोकने के लिये समावेशी शिक्षा यदि विशिष्ट बालकों के लिये विशेष शिक्षा के लिये शिक्षण विधियों, पाठ्यक्रम एवं शिक्षकों की उचित व्यवस्था नहीं की जाती है तो वह समस्यात्मक बालक बन जाते हैं। इसे दूर करने के लिये विशिष्ट शिक्षा की उचित व्यवस्था उपलब्ध करायी जाती है।

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