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पाठ्यचर्या के प्रभावी क्रियान्वयन में विद्यालय के दर्शन, प्रशासन व संगठन की भूमिका (Role of School Philosophy, Administration and Organization in Creating a Context for Development of Curriculum)

पाठ्यचर्या के प्रभावी क्रियान्वयन में विद्यालय के दर्शन, प्रशासन व संगठन की भूमिका (Role of School Philosophy, Administration and Organization in Creating a Context for Development of Curriculum)

सीखने की प्रक्रिया सामाजिक सम्बन्धों के ताने-बाने में लगातार चलती रहती है। जब शिक्षक एव विद्यार्थी औपचारिक एवं अनौपचारिक रूप से अन्त क्रिया करते हैं। विद्यालय शिक्षार्थियों के समुदाय के लिए, जिसमें शिक्षक और विद्यार्थी दोनों आते हैं, संस्थागत स्थान होते हैं। अपने मित्रों के साथ विद्यालय के मैदान में खेलना, खाली समय में बेंच पर बैठकर बातें करना, सुबह की प्रार्थना, उत्सवों एवं विशेष अवसरों पर इकट्ठे होना, कक्षाओं की पढ़ाई, परीक्षा की घबराहट में परीक्षा शुरू होने से पहले पृष्ठों को पलटना, शिक्षकों और सहपाठियों के साथ विद्यालय के बाहर यात्राओं पर जाना—ये सभी गतिविधियाँ इस समुदाय को जोड़ते हुए उसे एक शैक्षिक समुदाय की पहचान देती है। अतः विद्यालय एवं कक्षा के वातावरण को किस प्रकार व्यवस्थित किया जाए कि इस प्रकार की अन्तक्रियायें सीखने-सिखाने को समर्थन एवं बढ़ावा दें। स्कूल का एक ऐसे सन्दर्भ की तरह पोषण कैसे किया जाए जिसमें बच्चे स्वयं को सुरक्षित, खुश एवं स्वीकृत महसूस करे और जिसे अध्यापक सार्थक एवं व्यावसायिक रूप से सन्तोषजनक पायें ? अतः पाठ्यचर्या के प्रभावी क्रियान्वयन में विद्यालय के दर्शन प्रशासन व संगठन की महान भूमिका होती है।


विद्यालय का भौतिक वातावरण व पाठ्यचर्या का क्रियान्वयन (PHYSICAL ENVIRONMENT OF SCHOOL AND IMPLEMENTATION OF CURRICULUM)

चेतन व अचेतन रूप से बच्चे सरचित या असरचित समय में अपने विद्यालय के भौतिक वातावरण से निरन्तर अन्त क्रिया करते रहते हैं। इसके बावजूद शिक्षा के भौतिक वातावरण के महत्व पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जाता है। प्रायः बिना किसी वैकल्पिक शिक्षा स्थल के कक्षाओं में भीड़ होती है। वे बिल्कुल भी आकर्षक नहीं होते बच्चों को अपनी ओर नहीं खींच पाते और न ही बच्चों की आवश्यकताओं के प्रति संवेदनशील होते हैं। विद्यालय भवन को अनुपयुक्त ढाँचा अध्यापकों की शिक्षण प्रभाविता व कक्षा की व्यवस्था को प्रबल रूप से प्रभावित करता है। ऐसा लगता है कि विद्यालय के भौतिक वातावरण की भूमिका शैक्षणिक गतिविधि को संरक्षण देने मात्र तक सीमित रह गयी है। बच्चों से जब उनके पसन्द के स्थान के विषय में पूछा जाता है तो अधिकतर वे उस स्थान पर रहना पसन्द करते हैं जो रंग-रंगीला, दोस्ताना और शान्त हो जहाँ ढेर सारी खुली जगह हो, साथ ही छोटे कोने हों, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे और खिलौने हों। बच्चों को आकर्षित करने के लिए विद्यालयों में इन चीजों का होना आवश्यक है।


विद्यालय के भौतिक वातावरण के सन्दर्भ में यह भी सुनिश्चित किया जाये कि कक्षा-कक्षो में पर्याप्त प्राकृतिक रोशनी हो उन्हें बच्चों के काम को कक्षा की दीवारों और स्कूल में विभिन्न स्थानों पर लगाकर कक्षा-कक्षों को और अधिक जीवन्त व प्रफुल्लित बनाया जा सकता है। बच्चों के द्वारा की गई चित्रकारी व हस्तकार्य के नमूने दीवारों पर लगाने माता-पिता और बच्चों तक यह दृढ़ सन्देश जाता है कि उनके काम को सराहा जा रहा है। उन कलाकृतियों को ऐसी जगहो और इतनी ऊँचाई पर लगाना चाहिए ताकि स्कूल के विभिन्न आयु वर्ग के बच्चे आसानी से उसे देख पायें आज भी हमारे कई विद्यालय जीर्ण-शीर्ण और बन्द कमरों में चल रहे हैं जो कि नीरस, अनुत्तेजक, अरुचिकर भौतिक परिस्थितियों को उत्पन्न करते हैं। इन स्कूलों के वातावरण को यदि अध्यापको प्रशासकों एवं वास्तुकारों के संगठित प्रयासों व आसान नवाचारों में बदला जा सके तो पाठ्यचर्या के क्रियान्वयन में सरलता हो सकती है।


विद्यालय का भवन उसकी सबसे महँगी भौतिक सम्पत्ति होता है। उससे सर्वाधिक शैक्षिक मूल्य निकालना चाहिए। भवन के नवीनीकरण या निर्माण के समय सृजनात्मक एवं व्यावहारिक समाधानों का प्रयोग करके भवन के शैक्षिक मूल्यों को अधिकतम तक बढ़ाया जा सकता है। इस प्रकार भौतिक वातावरण में बदलाव न केवल सौन्दर्य परिवर्तन है, बल्कि एक स्वाभाविक रूपान्तरण है जिसमें भौतिक स्थान, शिक्षाशास्त्र और बच्चे से जुड़ जाता है। बच्चे अपने संसार को बहु-इन्द्रियों से महसूस करते हैं विशेषकर दृष्टि और स्पर्श इन्द्रियों से एक त्रिआयामी (Three dimensional) स्थान बच्चों को सीखने के लिए एक विशेष व्यवस्था दे सकता है, क्योंकि वह पाठ्य पुस्तकों तथा ब्लैकबोर्ड का साथ देते हुए बच्चों के लिए बहु-इन्द्रिय अनुभव प्रस्तुत कर सकता है। स्थानिक आयामों, संरचनाओं आकाशो, कोणों, गति तथा स्थानिक विशेषताओं जैसे अन्दर-बाहर सममिति (Symmetry), ऊपर-नीचे का उपयोग, भाषा, विज्ञान, गणित तथा पर्यावरण की मूल अवधारणाओं को सम्प्रेषित करने के लिए किया जा सकता है। इन अवधारणाओं को उपलब्ध तथा नये बनाये जाने वाले स्थानों पर लागू किया जा सकता है। इसी प्रकार खिड़की सुरक्षा जाली को इस प्रकार बनाया जा सकता है जिस पर बच्चे लेखन पूर्व कौशलों का तथा भिन्नों को समझने का अभ्यास कर सकें. कोणों के प्रसार को दरवाजे के नीचे चिन्हित किया जा सकता है जिससे बच्चों को कोण की अवधारणा समझने में मदद मिले या कक्षा की अलमारी को पुस्तकालय का रूप दिया जा सकता है। इसी प्रकार कक्षा में लगे पंखों को विभिन्न रंगों में रंगकर बच्चों को इन बदलते रंग चक्रों का आनन्द लेने दिया जा सकता है।

इसी प्रकार कक्षा के बाहरी स्थान को भी शिक्षण हेतु प्रयुक्त किया जा सकता है, जैसे-खम्भे की घटती-बढ़ती परछाइयाँ जो धूप घड़ी की तरह समय मापने के विभिन्न तरीके समझा सकती है। शीत के मौसम के लिए उपयुक्त पर्णपाती पौधों को लगाना जो शीत ऋतु में पत्तियाँ गिराते है और गर्मी में हरे-भरे रहते हैं। इस प्रकार कक्षा-कक्ष में अन्दर या बाहर के भौतिक वातावरण में बदलाव न केवल सौन्दर्य परिवर्तन है, बल्कि एक स्वाभाविक रूपान्तरण है, जिसमें भौतिक स्थान, शिक्षाशास्त्र और बच्चे से जुड़ जाता है। देश के विभिन्न भागों में विद्यालय एवं कक्षाओं में बड़े-बड़े चित्र स्थायी रूप से लगे रहते हैं या पुते रहते हैं। इस प्रकार के दृश्य होते तो अधिक आकर्षक है. परन्तु कुछ समय बाद नीरस लगने लगते है और उस स्थान के आकर्षण को कम कर देते है। उसकी जगह छोटे आकार के ध्यान से चुने गये मित्ति-चित्र स्कूल को आकर्षक बनाने के लिए बेहतर हो सकते हैं। विद्यालयों की दीवारों का प्रयोग बच्चों द्वारा बनाई गई कलाकृतियों या शिक्षकों द्वारा बनाई गई कृतियों के लिए होना चाहिए जो हर महीने बदल जायें। इस प्रकार दीवारों को सजाना व कलाकृतियों को लगाने में सहयोग करना भी पाठ्यचर्या के क्रियान्वयन में विद्यालय के भौतिक वातावरण के सहयोग का परिचायक है।

अतः प्रत्येक विद्यालय द्वारा यह अवश्य सुनिश्चित कर लिया जाना चाहिए कि पाठ्यचर्या के लक्ष्यों को पूरा करने हेतु एक लचीली योजना बनायी जाये जिसमें स्कूल के प्राध्यापकों, संकुल व खण्ड अधिकारियों को शिक्षकों की मदद करते समय ध्यान में रखा जाना चाहिए। यह बात स्कूली जीवन के लगभग सभी पहलुओं पर लागू होती है। इस सन्दर्भ में कई नई तरह की शिक्षाशास्त्रीय तकनीकों को विभिन्न प्रयासों द्वारा प्रोत्साहन दिया गया है। जिला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम (DPEP) ने यह सुझाव दिया कि कक्षा-कक्ष का भौतिक खाका बदला जा सकता है, जिससे बच्चे छोटे समूह में इकट्ठे बैठ पायें या बड़े घेरे में बैठकर कहानी सुन सकें या अपना में व्यक्तिगत लेखन या पठन का काम कर सकें या रेडियो या टी वी पर प्रसारित कार्यक्रम के लिए एक समूह में एकत्र हो पायें। इसके लिए कुर्सी, मेज और दरियों की व्यवस्था को बदला जा सकता है व ऐसी सादी मेज-कुर्सी खरीदी जा सकती है जो ऐसी लचीली व्यवस्था हेतु उपयुक्त है। ऐसी कक्षाओं में इन कुर्सियों की सहायता से असमर्थ बच्चों को जरूरतों के हिसाब से बैठाया भी जा सकता है। परन्तु प्रायः देखा गया है कि अधिकांश विद्यालय ऐसी कुर्सियों की व्यवस्था की बजाय भारी-भरकम लोहे की बेंचों व बड़ी मेजों पर अधिक खर्च करते हैं जिससे केवल शिक्षक और श्यामपट्ट केन्द्रित सीखने की प्रणाली को बढ़ावा मिलता है।

स्कूलों व कक्षाओं के स्थान का अधिकतम उपयोग शिक्षा के संसाधनों रूप में किया जाना चाहिए। उदाहरण के तौर पर प्राथमिक स्कूलों की कक्षाओं में दीवारों को कहीं-कहीं 4 फुट तक काले रंग से पोत दिया गया है ताकि बच्चे उसका उपयोग चित्रकारी या स्लेट के रूप में कर सकें। कुछ स्कूलों में रेखागणित की आकृतियाँ फर्श पर बना दी जाती है जिसका उपयोग बच्चे विभिन्न गतिविधियों हेतु कर सकते हैं। कमरे के एक कोने को पढ़ने की सामग्री, कहानियों की किताबें, पहेली कार्ड व अन्य स्वयं निर्मित शिक्षा सामग्री को रखने के लिए उपयोग में लाया जा सकता है। जब कुछ बच्चे अपना पाठ जल्दी खत्म कर लेते हैं तो उन्हें इस कोने में जाने एवं अपनी पसन्द की सामग्री चुनने की छूट होनी चाहिए।

इसी प्रकार बच्चों को उन गतिविधियों में हिस्सा लेने के लिए भी प्रोत्साहित किया जा सकता है जो स्कूलों और कक्षा की पढ़ाई, काम और खेल को आकर्षक बना दें।

अधिकाश सरकारी स्कूलों में बच्चों को सफाई की जिम्मेदारी देने की एक स्वस्थ प्रथा है जो उन्हें स्कूल की दिनचर्या में काम को सम्मिलित करने का प्रोत्साहन देती है, परन्तु यह कार्य सजा के तौर पर नहीं दिया जाना चाहिए।


विद्यालय दर्शन की भूमिका (ROLE OF SCHOOL PHILOSOPHY)

विद्यालय सामाजिक स्थान होते हैं। अतः यहाँ समानता का मूल्य एवं सभी कामों के प्रति सम्मान को महत्व दिया जाना चाहिए। इसके साथ ही कक्षा को साफ रखना एवं सामान सही जगह पर रखना आदि पाठ्यचर्या के कुछ ऐसे अनुभव है जिनसे बच्चे अपनी एकल और सामाजिक जिम्मेदारियों से वाकिफ होते हैं और अपनी कक्षा एवं स्कूल को अधिक से अधिक आकर्षक बनाना सीखते हैं। इसके द्वारा बच्चों में समूह का एक हिस्सा होने की समझ और समूह में काम करने के लिए आवश्यक क्षमताओं को कई तरीकों से सामूहिक सम्पर्क संवाद द्वारा कक्षा और स्कूल में आत्मसात् करवाया जा सकता है। अतः वास्तविकता यह है कि ढाँचागत सुविधायें शिक्षार्थियों के लिए अनुकूल स्थितियाँ बनाने व गतिविधि केन्द्रित सन्दर्भ उपलब्ध करवाने के लिए जरूरी है। अतः विद्यालय में पाठ्यचर्या के क्रियान्वयन के सन्दर्भ में सक्षम बनाने वाले वातावरण का पोषण होना चाहिए तथा सार्वजनिक स्थल के रूप में स्कूल में समानता, सामाजिक विविधता व बहुलता के प्रति सम्मान का भाव होना चाहिए, साथ ही बच्चों के अधिकारों और उनकी गरिमा के प्रति सजगता का भाव भी होना चाहिए। इन मूल्यों को सजगतापूर्वक स्कूल के दृष्टिकोण का हिस्सा बनाया जाना चाहिए और उन्हें स्कूली व्यवहार की नीव बनना चाहिए। सीखने की क्षमता देने वाला वातावरण वह होता है जहाँ बच्चे सुरक्षित अनुभव करते हैं, जहाँ भय का कोई स्थान नहीं होता और स्कूली रिश्तों में बराबरी और जगह में समानता होती है। शिक्षकों को अपनी कक्षाओं को ऐसा उन्मुक्त वातावरणयुक्त बनाना चाहिए जहाँ किसी पढ़ाये जाते हुए पाठ के दौरान बच्चे खुलकर प्रश्न पूछ पाये और अपने सहपाठियों और शिक्षक के साथ संवाद कर पाये। जब तक वे अपने अनुभव नहीं बताते, अपनी शकाओं को दूर नहीं करते, सवाल नहीं करते वे सीखने की प्रक्रिया का हिस्सा नहीं बन पायेंगे। विद्यार्थियों की टिप्पणी को अनसुनी करने और चुप्पी को सख्ती से कक्षा में लागू करने की बजाय अगर शिक्षक विद्यार्थियों को चर्चा के लिए प्रोत्साहित करें तो पायेंगे कि कक्षा जीवन्त बन गई है और शिक्षण पूर्वानुभय और नीरस नहीं रह जाता है, बल्कि वह मानसिक अन्त क्रिया की रोमांच स्थली बन जाता है। इस तरह का वातावरण हर उम्र के विद्यार्थियों में आत्मबल और आत्मविश्वास का विकास करेगा। इससे आगे चलकर अधिगम की गुणवत्ता में भी बेहतरी होगी।

औसतन शिक्षक और विद्यार्थी प्रतिदिन छः घण्टे और एक वर्ष में 1000 घण्टे विद्यालय में बिताते हैं। अतः जिस भौतिक सन्दर्भ में वे काम करते है, वह समान, आरामदेह एवं सुखद होता चाहिए। इसके लिए शिक्षक, प्राचार्य तथा ग्राम शिक्षा समितियों अथवा विद्यालय विकास व निगहबानी समितियों को राज्य के भौतिक ढाँचागत सुविधाओं के सरकारी मानकों से भी अवगत होना चाहिए। जहाँ ये सुविधायें पर्याप्त नहीं है वहाँ इनको उपलब्ध कराने के प्रयास किये जाने चाहिए ताकि विद्यालय का कार्य न्यूनतम बाधाओं के साथ आगे बढ़े। अगर अधिकारिक सहयोग नहीं मिल रहा या उसमें देर हो तो स्थानीय समुदायों का सहयोग लिया जा सकता है तथा उनकी सहभागिता एवं इच्छा शक्ति से विद्यालय के वातावरण को पाठ्यचर्या के क्रियान्वयन हेतु उपयुक्त बनाया जा सकता है।

यह भी सत्य है कि शिक्षा राज्य की विरचनाओं को परिभाषित करने का काम करती है और उसमें यह क्षमता होती है कि हर विद्यार्थी को वह प्रजातात्रिक क्रियाकलापों का सकारात्मक अनुभव: कराये। चित्रपट पर बुने गये बेलबूटे के प्रत्येक धागे के रंग द्वारा मजबूती और गठन की तरह प्रत्येक भारतीय बच्चे को न केवल लोकतंत्र में भागीदारी के लिए सक्षम बनाया जा सकता है बल्कि लोगों के अन्तर्वैयक्तिक रिश्तों की प्रकृति व रंग द्वारा राष्ट्र की सामाजिक-राजनीतिक विरचना का निर्धारण भी किया जा सकता है।

जहाँ तक समावेशी शिक्षा हेतु विद्यालय के वातावरण व पाठ्यचर्या के क्रियान्वयन की बात है तो समावेशन की नीति को हर स्कूल व सारी शिक्षा व्यवस्था में व्यापक रूप से लागू किये जाने की जरूरत है। बच्चे के जीवन के हर क्षेत्र में वह चाहे स्कूल में हो या बाहर, सभी बच्चों की भागीदारी सुनिश्चित किये जाने की जरूरत है। स्कूलों को ऐसा केन्द्र बनाये जाने की आवश्यकता है जहाँ बच्चों को जीवन की तैयारी कराई जाये और यह सुनिश्चित किया जाये कि सभी बच्चो खासकर शारीरिक या मानसिक रूप से असमर्थ बच्चों, समाज के हाशिए पर जीने वाले बच्चों और कठिन परिस्थितियों में जीने वाले बच्चों को शिक्षा के इस महत्वपूर्ण क्षेत्र के सबसे ज्यादा फायदे मिलें।

बच्चों को शुरू में ही संकीर्ण संज्ञानात्मक आधार पर वर्गीकृत नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि इससे उस विविधता को क्षति पहुँचती है जो बच्चों की क्षमताओं और प्रतिभाओं में होती है। प्रत्येक बच्चे के साथ व्यक्तिगत स्तर पर जुड़ने की बजाय बच्चों को अपने शुरुआती जीवन में ही संज्ञानात्मक पदों पर रख दिया जाता है। श्रेष्ठतम विद्यार्थी, सामान्य सामान्य से कम स्तर के और असफल, अधिकतर मामलों में बच्चों के पास अपने पद से खुद हटने के मौके नहीं होते। ठप्पा लगाने की इस भयावह प्रक्रिया का बच्चों पर बहुत ही विनाशकारी प्रभाव पड़ता है। स्कूल बेतुकी हद तक जाकर बच्चों से इन ठप्पों को आत्मसात् करवाते हैं। स्कूल कुछ बच्चों को मन्दबुद्धि कहते हैं, यहाँ तक कि उन्हें बिठाते भी अलग है और ऐसे सूचक कक्षा में लगा देते हैं जिससे बच्चों का विभाजन बहुत ही स्पष्ट रूप से दिखने लगता है। सही उत्तर पता न होने का भय कई बच्चों को कक्षा में बिल्कुल मौन कर देता है जिससे वह भागीदारी और सीखने के समान अवसरों से वंचित रह जाते हैं। अच्छे अंक पाने वाले सफल विद्यार्थी भी असफलता के डर से उतने ही भयभीत रहते हैं। अतः गलतियों को शिक्षा के आवश्यक भाग के रूप में स्वीकार किये जाने की जरूरत है और बच्चों के दिमाग से पूरे अंक न ला पाने के भय को भी निकालना चाहिए। बच्चों के लिए तनाव-प्रबन्धन (Stress management) के कोर्स चलाने की जगह प्रधानाध्यापको और प्रबन्धकों को पाठ्यचर्या को तनावमुक्त करने की और अभिभावकों को यह सुझाव देने की जरूरत है कि बच्चों का स्कूल के बाहर जो जीवन है, उसे तनावमुक्त करें।

जो स्कूल कड़ी प्रतियोगिता की भावना पर जोर देते हैं, उन्हें अच्छे उदाहरण नहीं मानना चाहिए। इसमें राजकीय स्कूल भी शामिल हैं। समान विद्यालय का आदर्श, जिसकी वकालत चार दशक पहले कोठारी आयोग ने की थी, आज भी वैध है। चूँकि यह अपने संविधान में निहित भावना के अनुरूप है। स्कूल इन मूल्यों को आत्मसात करवाने में तभी सफलता प्राप्त कर सकते है जब वे ऐसा माहौल बना सके जहाँ प्रत्येक बच्चा खुशी महसूस करे और सुकून से जी पाये। यह आदर्श अब और भी प्रासंगिक हो गया है क्योंकि शिक्षा का अधिकार अब एक मौलिक अधिकार बन है, जिसका है। ऐसे बच्चों को स्कूलों में बनाये रखने लिए व्यवस्था को, जिसमें निजी क्षेत्र भी है. यह मानना होगा कि बचपन तरह के है और उभरते परिदृश्य क्षमता, व्यक्तित्व और आकाक्षाओं का कोई एक मानक काम नहीं कर सकता। स्कूल प्रशासकों और शिक्षकों यह समझना चाहिए कि भिन्न सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि और भिन्न क्षमता स्तर वाले लड़के-लड़कियाँ एक पढ़ते कक्षा वातावरण और समृद्ध तथा हो जाता है।

संक्षेप कि पाठ्यचर्या के विकास मदद मिल सके। सीखने प्रक्रिया सामाजिक सम्बन्धों ताने बाने लगातार चलती रहती है शिक्षक विद्यार्थी औपचारिक एवं अनौपचारिक रूप अतः क्रिया करते विद्यालय / स्कूल शिक्षार्थियों के समुदाय लिए, जिससे शिक्षक शिक्षार्थी दोनों आते संस्थागत स्थान होते अतः विद्यालय कक्षा वातावरण को किस व्यवस्थित किया जाए इस तरह की अंतःक्रियाएँ सीखने-सिखाने को समर्थन एवं बढ़ावा स्कूल एक ऐसे सन्दर्भ में कैसे पोषण किया जिससे स्वयं को सुरक्षित खुश स्वीकृत महसूस करें और जिसे अध्यापक सार्थक एवं व्यावसायिक रूप से सन्तोषजनक पायें। क्योंकि तभी पाठ्यचर्या का विकास समुचित से हो सकता यह भी सुनिश्चित कि ढाँचे सामग्री की न्यूनतम जरूरते पूरी और स्कूल की पाठ्यचर्या के लक्ष्यों पूरा करने सभी बाह्य एजेन्सियों का योगदान हो, तभी पाठ्यचर्या क्रियान्वयन में भी सुधार आता है।

स्कूल निर्देशित शिक्षा का स्थान होता है सृजन में निरन्तरता होती है के बाहर भी होता रहता है। अतः स्कूल समुदाय को अपने परिसर बुलाकर बाहरी संसार पाठ्यचर्या के प्रभावित में एक भूमिका दे सकता है। अभिभावक समुदाय सदस्य स्कूल में सन्दर्भ व्यक्ति के रूप में आकर पढ़ाये जा रहे विषय से सम्बन्धित अपना बाँट उदाहरण के लिए मशीनों के अध्याय में स्थानीय मैकेनिक को बुलाया सकता है जो मशीन ठीक करने के अपने अनुभवों की जानकारी कक्षा में दे सकता है। सभी स्कूलों को ऐसे तरीके खोजने की जरूरत जिनसे अभिभावकों की भागीदारी और जुड़ाव को समर्थन मिले और यह बरकरार रहे। अक्सर निजी स्कूल अभिभावकों को महज उपभोक्ता समझते हैं और उनसे यही कहते हैं कि अगर स्कूल की कोई गतिविधि पसन्द नहीं आ रही हो तो वे अपने बच्चों को स्कूल से निकाल लें। इससे पाठ्यचर्या क्रियान्वयन को गति नहीं मिल पाती है। होना तो ये चाहिए कि बच्चों की शिक्षा व अधिगम समुदाय अभिभावकों की भागीदारी हो ताकि समुदाय विषयवस्तु को प्रभावित कर उससे स्थानीय, व्यावहारिक उपयुक्त उदाहरण जोड़े तथा ज्ञान के सृजन व सूचना की खोज व अन्य खोजबीन छात्रों की मदद करें तथा गाँव से बच्चों के शिक्षण के अनुकूल परिवेश विकसित करें। अतः यदि स्कूल वातावरण पाठ्यचर्या क्रियान्वयन के अनुकूल बनाना है तो स्कूलों में अभिभावक शिक्षक संघ, स्थानीय स्तर समितियों व पूर्व विद्यार्थियों के संघ जैसे संस्थागत ढाँचे होने चाहिए। राष्ट्रीय उत्सवों और सांस्कृतिक कार्यक्रमों या खेलकूद के आयोजन में भी स्थानीय निवासियों, अभिभावकों व पूर्व विद्यार्थियों को आमन्त्रित करना चाहिए।

प्राय: देखा गया है कि शिक्षक संगठन और संस्थाएँ स्कूली शिक्षा के अन्तर्गत पाठ्यचर्या विकास में जितनी उनमें उम्मीद की जाती है इसमें कहीं ज्यादा बड़ी भूमिका निभा सकती है। इस प्रकार स्कूल के क्रियाकलापों में सुधार के मानक बना सकते हैं और पाठ्यचर्या को प्रभावी ढंग से पढ़ाने के लिए आवश्यक सुझाव भी दे सकते हैं। ये संस्थाएँ स्थानीय स्तर की संस्थाओं के साथ साथ खण्ड सन्दर्भ केन्द्र (BRC) और सकुल सन्दर्भ केन्द्र (CRC) के साथ यह आंकलन भी कर सकते है कि कितना ● अकादमिक समर्थन चाहिए और उस सम्बन्ध में अपनी राय भी दे सकती है।


विद्यालय प्रशासन व संगठन की पाठ्यचर्या के विकास में भूमिका (ROLE OF SCHOOL. ADMINISTRATION AND ORGANIZATION IN DEVELOPMENT OF CURRICULUM)

स्कूल विद्यार्थियों का भी उतना ही होता है जितना कि शिक्षकों, प्रधानाध्यापकों का और यह सरकारी स्कूलों के लिए विशेष रूप से सही है। शिक्षकों और विद्यार्थियों में परस्पर निर्भरता होती है. खासकर आज के दौर में जब सीखने का काम सूचना की उपलब्धि पर निर्भर करता है और ज्ञान का सृजन उन संसाधनों की नीव पर आधारित होता है जिनके केन्द्र में शिक्षक होता है। शिक्षक और विद्यार्थी दोनों ही एक-दूसरे के बिना कार्य नहीं कर सकते शिक्षा के सम्पादन को हितकारी (शिक्षक) और हिताधिकारी (विद्यार्थी) वाली समझ से आगे बढ़कर प्रेरक व सुगम बना शिक्षार्थी की तरफ आना होगा जिसमें सभी के पास यह सुनिश्चित करने का अधिकार और जिम्मेदारी होगी कि शैक्षिक काम हो।

वर्तमान में स्कूल के नियम और मानक (परम्पराएँ) विद्यार्थियों के अच्छे और उपयुक्त' व्यवहार को परिभाषित करते हैं। अनुशासन बनाये रखना ज्यादातर शिक्षको एवं वयस्क अधिकारियों (अक्सर खेल-कूद के अध्यापक और प्रबन्धक) का विशेषाधिकार होता है। ये अधिकारी अक्सर कुछ बच्चों को 'मॉनीटर' और 'अध्यक्ष के रूप में रख लेते हैं और उनको नियन्त्रण एवं व्यवस्था बनाये रखने की जिम्मेदारी दे देते हैं। सजा एवं पुरस्कारों की इसमें महत्वपूर्ण भूमिका होती है। जो लोग इस व्यवस्था को लागू करते हैं वे विरले ही इन नियमों पर या बच्चों पर पड़ने वाले उस प्रभाव पर प्रश्न उठाते हैं जो इस आज्ञापालन से बच्चों के सम्पूर्ण विकास, आत्म-सम्मान और शिक्षा में रुचि पर पड़ता है। आज भी कई स्कूलों में बच्चों को शारीरिक और शाब्दिक या गैर शाब्दिक यातना दी जाती है। स्कूल बच्चों को उनके सहपाठियों के सामने बेइज्जत भी करते हैं। आज भी कई शिक्षक, यहाँ तक कि माता-पिता भी यही सोचते हैं कि बच्चों को इस तरह की सजा या यातना देना बहुत जरूरी है। ये लोग इस तरह के व्यवहार से पड़ने वाले तात्कालिक और दीर्घकालिक अहितकारी प्रभावों से बिल्कुल अनभिज्ञ हैं। शिक्षकों के लिए जरूरी है कि वे स्कूलों को नियन्त्रित करने वाले नियमों और परम्पराओं के पीछे दिये गये मूलाधार पर चिन्तन करें और यह सोचे कि क्या ये नियम और परम्परायें हमारी शिक्षा के लक्ष्यों के साथ संगति बिठा पाते हैं ? उदाहरण के लिए, मोजे की लम्बाई या खेल जूतों की सफेदी के नियम का कोई शैक्षिक रूप से रक्षणीय महत्व नहीं होता है।

कक्षा में चुप्पी बनाये रखने से सम्बन्धित जो नियम होते हैं, जैसे- एक बार में एक ही बच्चा बोले या तभी बोलो जब सही उत्तर पता हो इस तरह के नियम समानता और बराबर अवसर देने के मूल्यों को कमजोर बनाते है और उन्हें क्षति पहुँचाते हैं। ऐसे नियम उन प्रक्रियाओं को भी हतोत्साहित करते हैं जो बच्चों की सीखने की प्रक्रिया में अन्तर्निहित होती है और सहपाठियो में समुदाय की भावना को विकसित होने से भी रोकते हैं। हालांकि इन नियमों से शिक्षकों के लिए कक्षा व्यवस्था की नजर आसान हो जाती और पाठ्यक्रम पूरा करना भी आसान है।


के लिए उनमें आत्मानुशासन का मूल्य और आदत डालना महत्वपूर्ण होता अनुशासन चाहिए काम सम्पन्न होने मदद करे जो बच्चों की सक्षमता शिक्षक एवं बच्चे दोनों के लिए आजादी विकल्प एवं स्वायत्तता बढ़ाने होना जरूरी है कि बच्चों को नियम विकसित करने प्रक्रिया में शामिल किया जाए ताकि के पीछे के तर्क को समझे उसके पालन की अपनी जिम्मेदारी को भी महसूस तरह से बच्चे स्वशासन के लिए बनाई गई संहिता प्रक्रिया के बारे जानेंगे और क्रियाओं एवं निर्णय लेने की प्रक्रिया में भाग लेने लिए कौशल विकसित कर इस तरह बच्चे शिक्षकों और विद्यार्थियों एवं आपस में वाले मनमुटाव को सुलझाने खुद भी तरीके ईजाद कर पायेंगे।


शिक्षकों को सुनिश्चित हो केवल ऐसे बनाये जाये जिनका सहजता पालन हो सकता नियम तोड़ने पर विद्यार्थियों दण्ड से का कोई भला नहीं होता, विशेषकर तब जब उसे तोड़ने पर्याप्त कारण हो। के लिए, कक्षा के शोरगुल शिक्षक एवं प्रधानाध्यापक हमेशा नाराजगी दिखाते लेकिन भी सम्भव है कि शोरगुल कक्षा जीवन्तता एवं सक्रियता का प्रमाण हो कि इसका कि कक्षा को नियन्त्रित नहीं कर रहे हैं। इसी प्रकार समयबद्धता को प्रधानाचार्य अकारण बहुत सख्त रुख अपनाते जो बच्चा ट्रैफिक की वजह से परीक्षा से आता है उसे दण्ड नहीं मिलना फिर भी ऐसे नियमों उच्च स्तरीय मूल्यों के रूप लागू हुए देखते इन में अधिकारियों की औचित्यहीनता बच्चों, एवं शिक्षकों के मनोबल का ह्रास कर अगर बच्चे यह याद रखे उसने नियम क्यों तोड़ा और अगर बच्चे की सुनी जाये तो बहुत फायदा सकता है। और संस्थान के प्रमुख अगर सत्ता की अधिकार का इस्तेमाल करें तो ज्यादा उचित होगा औचित्यहीनता और मनमानापन शक्ति होते हैं, उनसे डर पैदा होता आदर नहीं। स्कूल के सहभागी प्रबन्धन ऐसी व्यवस्था विकसित करने की जरूरत जिसमें शिक्षकों और प्रबन्धकों की भूमिका हो। इस बात भी आवश्यकता कि बच्चों अपनी परिषद् हेतु प्रतिनिधि चुनने के लिए प्रोत्साहित किया और इसी तरह शिक्षको प्रशासकों और अध्यापकों को भी अपने आपको संगठित करना


पाठ्यचर्या के स्थल और अधिगम के (CURRICULAR SITES LEARNING RESOURCES)


के विकास के लिए मुख्यत पाठ्य पुस्तक को अधिगम संसाधन रूप में प्रयुक्त किया जाता परन्तु आज इस दृष्टिकोण में परिवर्तन है यह आवश्यक समझा जा कि इसके साथ बहुत सारी अन्य सामग्री भी की जाए जिसे अधिगम संसाधन की तरह प्रयुक्त किया जा सके। इस प्रकार सूचनाओं के से तो बचा ही जा सकता है बल्कि शिक्षक को यह मौका भी मिल सकता है कि अवधारणाओ


की समझ पर बल दे पाए। इसके लिए सहायक पुस्तके, कार्य पुस्तिकाओं के विकास के अतिरिक्त ऐसी सामग्री के विकास की भी जरूरत है जो छात्रों में अवधारणात्मक समझ का विकास कर सके। वर्तमान पुस्तकों में विभिन्न विधाओं के अरुचिकर पाठ है और कार्य पुस्तिकाओं में उसी तरह के अभ्यासों को दोहरा दिया जाता है जो पहले से ही पाठ्य पुस्तकों में मौजूद होते हैं। अतः गणित, विज्ञान और सामाजिक विज्ञान के विषयों के लिए ऐसी अधिगम सामग्री का विकास करने की आवश्यकता है जो बच्चों का ध्यान पाठ से आगे ले जाकर अपने आस-पास के संसार पर केन्द्रित कर पाये। निश्चय ही कला जैसे विषयों के लिए कार्य पुस्तिकाएँ (Work books) मुख्य कक्षा सामग्री के रूप में काम करती हैं। पर्यावरण के अध्ययन हेतु अधिगम संसाधन के रूप में तैयार की गई अधिगम सामग्री छात्रों को उनके ही परिवेश में रहने वाले पेड़, पक्षी और प्राकृतिक आवास का अवलोकन कराती है। ऐसे संसाधन कक्षा में उपयोग के लिए और शिक्षक के लिए उपलब्ध होने चाहिए।


मानचित्रावलियों की भी पृथ्वी के बारे में बच्चों की जानकारी बढ़ाने में ऐसी ही भूमिका होती है चाहे पृथ्वी को प्राकृतिक आवास के रूप में देखें या मानवीय आवास के रूप में देखें। तारों जल, थल, लोगों और जीवन के प्रतिमानों, इतिहास एवं संस्कृति आदि की मानचित्रावलियाँ प्रत्येक स्तर पर भूगोल, इतिहास और अर्थशास्त्र की सीमाओं का विस्तार कर सकती हैं। ज्ञान के इन क्षेत्रों और सरोकारों के अन्य मुद्दों जिन पर सामान्य जागरूकता बढ़ाने की जरूरत है, पर बनाए गए पोस्टर भी अधिगम का विस्तार कर सकते हैं। इनमें से कुछ सरोकार है-लिंग भेद, विशिष्ट जरूरतों वाले बच्चों का समावेशन और संवैधानिक मूल्य। इस तरह की सामग्री संसाधन पुस्तकालय या संकुल के स्तर पर उपलब्ध हो सकती है ताकि स्कूल उन्हें उपयोग के लिए ले पाएँ। ऐसी सामग्री को स्कूल के पुस्तकालय में भी रखा जा सकता है और शिक्षकों द्वारा भी बनाया जा सकता है।


शिक्षकों के लिए मार्गदर्शिकाएँ और संसाधन भी उतने ही जरूरी है जितनी पाठ्य पुस्तकें नयी पाठ्य-पुस्तकें लागू करने के किसी भी प्रयास या नयी तरह की पाठ्य पुस्तकें बनाने के प्रयास में शिक्षकों के लिए सहायक पुस्तिका की व्यवस्था भी होनी चाहिए। ये पुस्तिकाएँ पाठ्य पुस्तकों से पहले प्रधानाचार्यो और शिक्षकों तक पहुँच जानी चाहिए। शिक्षकों की सहायक पुस्तिकाएँ विविध रूपों में तैयार की जा सकती है। जरूरी नहीं है कि वे पाठ्य पुस्तकों की विषयवस्तु को अध्याय-दर- अध्याय शामिल करें हालांकि यह एक तरीका हो सकता है। पढ़ाने के अन्य रूप भी उतने ही वैध हो सकते हैं जो स्थापित तरीको की आलोचनात्मक समीक्षा करें और नए तरीके सुझाएँ और जिसमें संसाधन सामग्री दृश्य एवं श्रव्य सामग्री और इंटरनेट की साइट की सूची शामिल हो। इससे शिक्षकों को ऐसी मदद मिलेगी जिनका वे नियोजन में इस्तेमाल कर सकते है। इस तरह की संसाधनात्मक किताबें शिक्षकों को सेवाकाल के दौरान दिए जाने वाले प्रशिक्षण के समय में उपलब्ध होनी चाहिए और उन बैठकों में भी उपलब्ध होनी चाहिए जब वे अपनी शिक्षण इकाइयों की योजना बनाते हैं।


बहुश्रेणीय कक्षाओं (बहुश्रेणी या बहुक्षमता) को उन पाठ्य पुस्तकों के उपयोग से हटने की जरूरत है जो एकल श्रेणी कक्षाओं के लिए बनाई जाती है। एकल श्रेणी कक्षाओं की पाठ्य पुस्तकें इस मान्यता पर आधारित होती है कि शिक्षक सभी बच्चों को एक साथ ही सम्बोधित करेगा, सभी बच्चो का स्तर एक ही है और उनसे एक ही तरह की उम्मीदें की जायेंगी। बल्कि जरूरत इस बात की है कि शिक्षकों को अन्य वैकल्पिक सामग्री उपलब्ध कराई जाए जो पाठ एवं इकाई योजनाएं बनाने में मदद करे:-

● विविध प्रकार के अभ्यासों और गतिविधियों के साथ (विविध स्तरों पर और विविध समूहों के


लिए) विषयबद्ध पाठ दिए जाएँ। ● श्रेणीकृत सामग्री जिसका बच्चे स्वयं उपयोग कर पाएँ और शिक्षक के न्यूनतम सहयोग के सहारे स्वयं काम कर पाएँ। ऐसी सामग्री बच्चों को स्वयं एवं सहपाठियों के साथ काम करने के मौके भी थे। ● सम्पूर्ण समूह आधारित योजना, जैसे- कहानी सुनाना या छोटे नाटक जिनके आधार पर बच्चे विविध गतिविधियों कर सकें। उदाहरण के लिए कक्षा 1 से 5 तक के सभी बच्चे


खरगोश और शेर की लोक कथा पर मिलकर नाटक कर सकते हैं। इसके बाद पहले और दूसरे समूह के बच्चे कार्ड पर जानवरों के नाम लिखने का काम कर सकते है. तीसरे और चौथे समूह के बच्चे चित्र बनाकर उनके आधार पर कहानी लिखने का काम कर सकते हैं, पाँचवाँ समूह उस कहानी को फिर से लिख सकता है, जिसमें वे कोई नया अन्त सुझा सकते है। उपयुक्त सामग्री के अभाव में ज्यादातर शिक्षक एक समान कक्षा में पढ़ाते रहते हैं, परिणामस्वरूप कक्षा में ज्यादातर विद्यार्थियों को काम के लिए समय बहुत कम मिलता है।


पुस्तकालय


आज पुस्तकालय काफी समय से नीतिगत सुझावों के हिस्सा रहे हैं, लेकिन आज भी स्कूलों में चालू हालात में पुस्तकालय बिरले ही देखने को मिलते है। यह जरूरी है कि भविष्य में योजनाएँ बनाते समय पुस्तकालय को स्कूल के हर स्तर के लिए एक आवश्यक घटक के रूप में देखा जाए शिक्षको और विद्यार्थियों दोनों को ही इस बात के लिए प्रोत्साहित और प्रशिक्षित करने की जरूरत है कि वह पुस्तकालय को अधिगम आनन्द एवं तन्मयता के साधन के रूप में इस्तेमाल करें। स्कूल पुस्तकालय की संकल्पना एक ऐसे बौद्धिक स्थल के रूप में की जानी चाहिए जहाँ शिक्षक, विद्यार्थी और निकटस्थ समुदाय के लोग ज्ञान के गहरे अर्थों और कल्पनाशीलता की तलाश में आएँ। किताबों के सूचीकरण और अन्य व्यवस्थाओं को वहाँ इस प्रकार विकसित किया जाना चाहिए कि बच्चे आत्मनिर्भर रूप से पुस्तकालय का उपयोग कर पाएँ। किताबों और पत्रिकाओं के अलावा पुस्तकालय में सूचना तकनीक के नए आयामों की सुविधा होनी चाहिए ताकि विद्यार्थी विस्तृत विश्व से जुड़ पाएँ। नियोजन के आरम्भिक चरणों में खण्ड के स्तर या संकुल स्तर पर पुस्तकालयों को समृद्ध किया जा सकता है। भविष्य में भारत को प्रत्येक स्कूल में पुस्तकालय स्थापित करने की तरफ कदम उठाने चाहिए, चाहे स्कूल किसी भी स्तर का हो। देश के विभिन्न हिस्सों में ग्रामीण इलाकों में सामुदायिक पुस्तकालय चल रहे हैं और जिलो के मुख्यालयों में भी सरकारी पुस्तकालय की व्यवस्था है। भविष्य में नियोजन की यह माँग होगी कि इस तरह की संस्थाओं को स्कूली पुस्तकालयों के नेटवर्क में जोड़ दिया जाए जिससे संसाधनों का अधिकतम उपयोग हो पाए। राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउण्डेशन को अतिरिक्त संसाधन उपलब्ध करवाए जा सकते हैं कि वह स्कूली पुस्तकालयों के नेटवर्क की संकल्पना में एक संयोजक संस्था की तरह काम करे और नेटवर्क बन जाने के बाद उसके रख रखाव पर भी ध्यान दे।


दिन-प्रतिदिन के स्कूली जीवन में पुस्तकालय कई प्रकार के उद्देश्य पूरे करते हैं। पुस्तकालय के उपयोग को एक ही घंटे तक सीमित करने से बच्चों में पठन के प्रति रुचि जगने में मुश्किल आती है। विद्यार्थियों को किताबें घर ले जाने की सुविधा दी जानी चाहिए। पुस्तकालय संचालन प्रबन्धन और इस्तेमाल के लिए शिक्षकों के प्रशिक्षण से व्यवस्था सम्बन्धी स्थितियों की माँग से निपटा जा सकता है। जहाँ स्कूल भवन में अलग से पुस्तकालय कक्ष की व्यवस्था हो, वहाँ एक सकारात्मक लोकाचार के लिए


रोशनी और बैठने की अच्छी व्यवस्था की तरफ ध्यान देने की जरूरत है। यह भी सम्भव हो सकता है कि शिक्षक, पुस्तकालय के संसाधनों के इस्तेमाल द्वारा पुस्तकालय में कक्षा आयोजित करें, पुस्तकालय के अन्दर कक्षा लेने या पुस्तकालय से पर्याप्त पुस्तकें कक्षा में ले जाने और इसके अलावा, चर्चा करने, किसी शिल्पकार को सुनने या कहानी सुनाने के लिए भी पुस्तकालय का इस्तेमाल किया जा सकता है। शिक्षकों को समर्थन देने के लिए संकुल एवं खण्ड स्तर पर ऐसे ससाधनात्मक पुस्तकालय बना कर पाठ्यचर्या के नवीनीकरण को मजबूत किया जा सकता है। हर खण्ड को किसी एक विषय क्षेत्र में विशिष्ट बनाया जाए ताकि जिले में पर्याप्त संसाधन उपलब्ध हो जाएँ। शैक्षिक तकनीकी


पाठ्यचर्या के नियोजन के एक महत्त्वपूर्ण पहलू के रूप में शैक्षिक तकनीक व्यापक रूप से पहचानी गई है, लेकिन इसके अनुकूलतम शैक्षिक उपयोग के लिए विस्तृत दिशा-निर्देश और रणनीतियाँ अभी बन नहीं पाए है। सामान्य तौर पर तकनीक का प्रयोग प्रसार के लिए किया जाता है, या अच्छे शिक्षकों की कमी के मुद्दे को सम्बोधित करने के लिए जो सामान्यतः भर्ती की घटिया नीतियों का परिणाम होता है। शिक्षण तकनीक को अगर शिक्षा की गुणवत्ता में कमी को पूरा करने मात्र के लिए प्रयोग में लाया जाए तो शिक्षकों का शिक्षण से ही मोह भंग हो सकता है। अगर शिक्षण तकनीक का उपयोग पाठ्यचर्या के सुधार के लिए होना है तो शिक्षकों और बच्चों को केवल उपभोक्ता की तरह नहीं बल्कि सक्रिय उत्पादकों के रूप में ही देखना होगा। इसके विकास और प्रयोग के लिए विस्तृत स्तर पर विचार-विमर्श को आवश्यकता है। शिक्षण तकनीक का साक्षात् अनुभव कराने के लिए खण्ड से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक के प्रत्येक स्कूल में इसकी तकनीकी सुविधाएँ मुहैया करवाई जानी चाहिए। बच्चों, शिक्षकों और शिक्षक प्रशिक्षकों को दिए जाने वाले ऐसे अनुभवों में एक ग्रामीण वृद्ध के साक्षात्कार पर एक वीडियो फिल्म या ऑडियो टेप बनाकर उसे शामिल किया जा सकता है या किसी वीडियो गेम को ले सकते हैं। अगर बच्चों को मल्टी मीडिया उपकरण और सूचना सम्प्रेषण तकनीक के उपकरण सीधे उपलब्ध करवाएँ और उन्हें यह छूट भी हो कि वे उन्हें जोड़-तोड़ कर अपनी खुद की रचनाएँ बनाएँ और उनसे अपने अनुभव प्रस्तुत करने के लिए कहा जाए, तो बच्चों को अपनी सृजनात्मक कल्पनाशीलता को निखारने के अवसर मिलेंगे।


शिक्षण तकनीक के लिए बनाए गए कार्यक्रमों को निष्क्रिय रूप से देखने और सुनने के बदले अगर उपर्युक्त तरीके से शैक्षिक तकनीक में उत्पादन के अनुभव हो तो देश के तकनीकी संसाधनों का कहीं बेहतर उपयोग किया जा सकता है। सीडी-आधारित कम्प्यूटरों की बजाय नेट से जुड़े कम्प्यूटरों के प्रयोग को बढ़ावा देकर ग्रामीण और सुदूर इलाकों में पाठ्यचर्या सुधार का प्रभाव पहुँचेगा और नए विचारों और सूचनाओं को पहुँचाने के लिए उनका प्रयोग हो पाएगा। एकतरफा अभिग्रहण से नहीं बल्कि दोतरफा अन्तः क्रियात्मकता से ही यह तकनीक वास्तव में शैक्षिक हो पाएगी।


पाठ्य पुस्तक की विषयवस्तु को जस का तस पुनरुत्पादित करने, कक्षायी परिस्थितियों की नकल प्रस्तुत करने और प्रयोगशाला के प्रयोगों को अनुप्राणित करने की जगह शैक्षिक तकनीक का बेहतर उपयोग तब हो सकेगा जब विषयों या मुद्दों को गैर उपदेशात्मक रूप में विकसित किया जाए ताकि शिक्षार्थी ज्ञान के नेटवर्क से बेहतर रूप में जुड़ पाएँ और अपनी रुचि के स्तर के अनुसार सीख पाएँ। क्षेत्रीय भाषाओं में इस प्रकार का ज्ञान कम ही उपलब्ध है, यही कारण है कि शहरी और ग्रामीण स्कूल के विद्यार्थियों के बीच और अंग्रेजी माध्यम के विद्यार्थियों और क्षेत्रीय भाषा के विद्यार्थियों के बीच की खाई गहरी होती जा रही है। बच्चों के लिए इस प्रकार के ज्ञान कोश और डॉक्युमेण्ट्री की सम्भावनाएँ अभी पूरी तरह विकसित नहीं हो पाई है। शिक्षकों के लिए पाठ्य पुस्तको, सहायक पुस्तिकाओं और कार्य


पुस्तिकाओं जैसी सामग्री को इस जागरूकता के साथ विकसित करना चाहिए कि बहुत सारी अच्छी गुणवत्ता वाली दृश्य और श्रव्य सामग्री उपलब्ध है और नेट पर बहुत सारे अन्य संसाधन उपलब्ध है। सर्वकालिक (क्लासिक) सिनेमा को इसके माध्यम से उपलब्ध कराया जा सकता है। उदाहरण के लिए, ग्रामीण जीवन के शिक्षण के दौरान या तो सीडी पर या राष्ट्रीय स्तर पर संचालित किसी वेबसाइट द्वारा सत्यजीत राय की फिल्म पथेर पांचाली दिखाई जा सकती है। भविष्य की पाठ्य पुस्तकों की संकल्पना और रूपरेखा इस तरह से होनी चाहिए जो विभिन्न विषयों के ज्ञान और अनुभवों को समाकलित करे जिससे ज्ञान को आत्मसात करना सम्भव हो पाए। उदाहरण के लिए, माध्यमिक स्कूल की जिस पाठ्य पुस्तक में राजस्थान के इतिहास और मीरा का उल्लेख हो, उसमें मीराबाई का एक भजन मी शामिल किया जाए और यह भी बताया जाए कि वह भजन कहाँ से मिला ताकि विद्यार्थी एम एस सुब्बुलक्ष्मी की आवाज में मीराबाई का भजन सुन सकें।


ज्ञान और अनुभव को इस प्रकार समेकित करने से शिक्षा उस बोझ और ऊब से निजात पा सकती है जिससे वह आज गुजर रही है। गणित और विज्ञान में, और शारीरिक रूप से असमर्थ बच्चों को पढ़ाने के लिए आई.टी. मिश्रित शैक्षिक तकनीक काफी उपयोगी साबित हो सकती है। महत्त्वपूर्ण यह है कि पाठ्यक्रम के लक्ष्यों को पाने के क्रम में इसकी सम्भावनाओं का इस्तेमाल किया जाए और इसके उपयोग को लेकर उम्र आधारित योजनाएँ बनाई जाएं। सरकार और वित्त प्रबन्धन की अन्य संस्थाओं को शिक्षण तकनीक की पूरी सम्भावनाओं और उसके लाभों पर ध्यान देने की जरूरत है। उपकरण और प्रयोगशालाएँ


स्कूल को शिल्प और कलाओं की दृष्टि से आवश्यक उपकरणों से लैस किए जाने की आवश्यकता है। पाठ्यचर्या के ये क्षेत्र स्कूल को एक सृजनात्मक स्थान बनाने के लक्ष्यों को पूरा करने में तभी मदद कर सकते हैं जब हम संसाधनों के लिए सतर्क योजना बनाएँ।


अपने साप्ताहिक एवं पाक्षिक चक्रों में धरोहर शिल्प को करघे, कैंची, कढ़ाई के फ्रेम, खराद इत्यादि की जरूरत होती है। विभिन्न शिल्पों की जरूरतें अलग होती है। यह जरूरी है कि पाठ्यचर्या के नियोजन का यह हिस्सा लिंग एवं जाति भेद से ग्रसित न हो, नहीं तो इसका मुख्य लक्ष्य कहीं खो जाएगा। यह लक्ष्य है सामग्री और मानव के वातावरण से कल्पनाशील एवं सक्रिय रूप से जुड़ने की संस्कृति को बढ़ावा देना। यह बात कलाओं के लिए भी सही है जिन्हें पाठ्यचर्या के अन्य क्षेत्रों में समेकित करने के अलावा विशेष सामग्री एवं उपकरणों की भी जरूरत है। उपकरणों के इस्तेमाल के मौके उनके उपयोग में निपुणता हासिल करने के मौके और उपकरणों की देखभाल के मौके बच्चों को मूल्यवान अनुभव दे सकते हैं। कला की मदद से किए गए बच्चों की इन्द्रियों एवं क्षमताओं के प्रशिक्षण में किया गया निवेश उनकी साक्षरता को समृद्ध करने में और शान्ति की संस्कृति को विकसित करने में सजीव भूमिका निभाता है।


स्कूलों, विशेषकर ग्रामीण इलाकों के स्कूलों की विज्ञान प्रयोगशालाएँ दीन-हीन है, और उनमें गणित की गतिविधियों के लिए भी उपकरण नहीं है। इस तरह की सुविधाओं का अभाव विद्यार्थियों के विषय-विकल्प को सीमित करता है और भविष्य के लिए समान अवसरों से वंचित कर देता है। इसलिए यह आवश्यक है कि पर्याप्त संसाधनों वाली प्रयोगशालाएँ स्कूलों में उपलब्ध हो और स्कूलों में पर्याप्त सुविधाएँ हो जहाँ प्राथमिक स्कूलों को विज्ञान और गणित दोनों से लाभ हो सकता है, वहीं माध्यमिक एवं उच्च माध्यमिक स्कूलों को सुसज्जित प्रयोगशालाओं की जरूरत है।


अन्य स्थल एवं अवसर


पाठ्यचर्या के प्रभावी क्रियान्वयन में विद्यालय के दर्शन प्रशासन


पाठ्यचर्या के स्थल जो भौतिक रूप से स्कूल परिसर से बाहर होते हैं, वे भी उतने ही महत्त्वपूर्ण हैं जितने कि वे जिनकी ऊपर चर्चा की गई है। ये स्थल है-स्थानीय स्मारक एव संग्रहालय, प्राकृतिक सम्पदा जैसे नदी और पहाड़, रोजमर्रा की जरूरतें जैसे बाजार और डाक घर अगर शिक्षक सुन्दर ढंग से इन संसाधनों के प्रयोग से स्कूल की दिनचर्या बनाएँ तो बच्चों को स्कूल में प्राप्त होने वाली शिक्षा की गुणवत्ता पर सीधा प्रभाव पड़ेगा। कक्षा की गतिविधियों को पाठ्य पुस्तकों तक सीमित कर देने से बच्चों की रुचियों और उनके सामर्थ्य के विकास में बाधा आती है। इनमें से कई बाधाएँ इसीलिए उठती हैं क्योंकि स्कूल की दैनिक और वार्षिक सारणी का बहुत ही सख्ती से अनुसरण किया जाता है। तारों के अध्ययन के लिए रात का आकाश इसलिए उपलब्ध नहीं हो पाता क्योंकि स्कूल के गेट न तो रात को खुलते हैं, न ही रात को स्कूल की छत पर किसी को जाने की इजाजत होती है। दलते हुए सूरज का अध्ययन या जून में मानसून का आगमन, स्कूल की सारणी से बाहर ही रह जाते हैं। देश के विभिन्न भागों के स्कूली बच्चों के एक-दूसरे के स्कूल के दौरों, आदान प्रदान और यहाँ तक कि दक्षिण एशियाई देशों के साथ भी इस तरह का आदान-प्रदान आपसी समझ को बढ़ावा देने में सहायक हो सकता है।


शिक्षकों और प्रशासकों को एकजुट होकर इस तन्त्र को ऐसी रूढ़ियों से मुक्त जरूरत है। साथ ही, पाठ्यक्रम बनाने वालों, पाठ्य-पुस्तक लेखकों और शिक्षक पुस्तिकाओं के लेखकों में ऐसी गतिविधियों की योजना की विस्तृत चर्चा हो जो पाठ्यचर्या की सीमाओं का विस्तार करती है। इसके लिए इस मानसिकता से मुक्ति की जरूरत है कि शारीरिक गतिविधियों और कला -शिल्प के विषय पाठ्येतर होते हैं। बहुलता और वैकल्पिक सामग्रियों की आवश्यकता


भारतीय समाज की बाहुल्यवादी और विविध प्रकृति निश्चित रूप से यह माँग करती है कि न केवल विविध प्रकार की पाठ्य पुस्तकें छापी जाएँ, बल्कि अन्य सामग्री भी तैयार की जाए ताकि बच्चों की रचनात्मकता, सहभागिता और रुचियों का इस तरह विकास हो सके कि उनके अधिगम में बढ़ोत्तरी हो। कोई एक पाठ्य पुस्तक विविध समूह के बच्चों की विस्तृत आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर सकती है। साथ ही, कोई भी विषय वस्तु या अवधारणा को पढ़ाने के कई ढंग हो सकते हैं। स्कूल चाहे सरकारी हो या निजी उनके पास अलग-अलग विषयों के लिए पाठ्य पुस्तकों के विकल्प होने चाहिए। अलग-अलग बोर्ड या पाठ्य पुस्तक ब्यूरो एक से अधिक पुस्तकों की श्रृंखला प्रकाशित करने के बारे में सोच सकते हैं या अन्य प्रकाशकों की पुस्तकों को चुन सकते हैं ताकि स्कूलों को चयन के कई विकल्प दिए जा सके। काफी पहले 1953 में माध्यमिक शिक्षा आयोग की रपट ने पाठ्य पुस्तकों की कमियों को दूर करने सम्बन्धी कई सुझाव दिए थे। उसमें इस बात पर जोर दिया गया था कि किसी विषय के अध्ययन के लिए केवल एक पाठ्य पुस्तक का प्रावधान नहीं होना चाहिए, बल्कि दिए गए मानकों के अनुसार कई पुस्तकें प्रस्तावित होनी चाहिए, और विकल्प चुनने की छूट स्कूल को मिलनी चाहिए पाठ्यचर्या के विकास की जरूरतों वाले खण्ड में कोठारी आयोग ने इस पर जोर दिया था कि पाठ्यचर्या का पुनर्निरीक्षण तदर्थ प्रकृति का रहा है और इसे राज्य स्तर पर तैयार किया जाता रहा है जिसे सभी स्कूलों में एकसमान रूप से लागू कर दिया जाता है। ऐसी प्रक्रियाएँ शिक्षकों एवं मुख्य अध्यापकों के प्रभाव को क्षीण बनाती है और नवाचार एवं खोज की सम्भावना को नष्ट करती हैं। रपट ने स्पष्ट रूप से कहा कि पाठ्यचर्या सुधार की सफलता का आधार उपयुक्त पाठ्य पुस्तकों, सहायक पुस्तिकाओं और अधिगम के अन्य संसाधनों का निर्माण है।


संसाधनों का संयोजन एवं उनकी व्यवस्था


शिक्षण की सहायक सामग्री तथा अन्य पुस्तकें खिलौने आदि स्कूल को बच्चों के लिए रुचिकर बना देते है। देश के कुछ राज्यों में तो डीपीईपी एवं अन्य कार्यक्रमों के धन द्वारा सीखने सिखाने की सामग्री का निर्माण भी हुआ है। कई जगह काफी कुछ बनी बनाई सामग्री उपलब्ध है, और शिक्षकों एवं खण्ड और संकुल स्तर के सभी सन्दर्भ व्यक्तियों को यह प्रशिक्षण देने की ज़रूरत है कि उनमें उपलब्ध सामग्री की जानकारी बढ़े और वे उसका बेहतर उपयोग कर पाएँ। बच्चों और शिक्षकों को ध्यान में रखते हुए विभिन्न गैर सरकारी संगठन तथा अन्य संस्थाओं द्वारा तैयार की गई सामग्री भी उपलब्ध है। इसके अलावा स्थानीय स्तर की सामग्री उपलब्ध होती है जिसकी कीमत बहुत कम होती है पर वह कक्षा के • लिए बड़ी उपयोगी होती है, विशेषकर प्राथमिक स्तर के स्कूलों में शिक्षकों को विभिन्न प्रकार की आधार सामग्री जुटानी चाहिए जिनसे ऐसी सहायक सामग्री बनाई जा सके जिसका साल दर साल इस्तेमाल हो सके। ताकि शिक्षकों के द्वारा लगाए मूल्यवान समय का सदुपयोग हो सके। उपकरणों में स्टायरोफोम या कार्डबोर्ड न तो आकर्षक होते हैं न ही टिकाऊ, उनकी जगह रेक्सिन, रबर और कपड़े के विकल्प बेहतर हैं। अन्य प्रकार की आधार सामग्री जैसे नक्शे और चित्रावली को अगर संकुल केन्द्र पर रखा जाए जो सन्दर्भ पुस्तकालय की तरह काम करें, तो उन्हें स्कूलों द्वारा आपस में बाँटा जा सकता है। पढ़ाते समय शिक्षक संकुल से सामग्री उधार ले लें और काम खत्म होने के बाद उन्हें लौटा दें जिससे बाकी शिक्षक भी ज़रूरत पड़ने पर सामग्री को ले पाएँ। इस तरह से एक शिक्षक द्वारा जुटाए गए संसाधन का लाभ दूसरे शिक्षकों को मिल पाएगा और यह भी सम्भव होगा कि पूरी कक्षा के उपयोग के लिए सामग्री के कई सेट तैयार हो जाएं।


इस प्रकार के संसाधनों की उपलब्धता वित्तीय संसाधनों पर निर्भर करती है और ज्यादातर स्कूलों में घनाभाव रहता है। फिर स्कूल इस प्रकार के संसाधन कैसे बना सकते हैं ? कुछ तो सरकारी कार्यक्रम है: जैसे-ऑपरेशन ब्लैकबोर्ड, जिसमें प्राथमिक और उच्च माध्यमिक स्तर पर न्यूनतम सामग्री उपलब्ध कराई गई है। उसी प्रकार एक योजना है जो स्कूलों के लिए साइकिल और खिलौने खरीदने का प्रावधान करती है। स्कूलों को इन अवसरों से फायदा हो सकता है और वे स्थानीय स्तर पर मौजूद संभावनाओं का इस्तेमाल करके अपनी शिक्षण और खेलकूद सामग्री को बेहतर बना सकते हैं प्रभावी शिक्षण के लिए आजकल शैक्षिक तकनीकों पर बड़ा ही ज़ोर दिया जाता है। कुछ स्कूलों में अब कम्प्यूटर आधारित शिक्षा का चलन बढ़ा है तो कुछ इलाकों में अध्यापन में रेडियो और टेलीविजनों का इस्तेमाल हो रहा है।


अंततः ऐसी सामग्री के इस्तेमाल को नियोजन की ज़रूरत होती है। अगर सामग्री उपयोग को प्रभावी बनाना है और भागीदारी एवं समझ बढ़ाने के लिए उसका उपयोग करना है तो उसे नियोजन का भाग बनाना होगा। शिक्षक अगर कक्षा में प्रदर्शन के लिए सामग्री का उपयोग कर रहा है तो उसे पहले से तैयारी करनी होगी और योजना बनानी होगी। अगर कक्षा में किसी गतिविधि की योजना बनाई जाए तो पर्याप्त सामग्री होनी चाहिए ताकि कक्षा का हर विद्यार्थी उसका इस्तेमाल कर सके चाहे अकेले या समूह में अगर केवल एक विद्यार्थी को उपकरण चलाने का मौका मिले और बाकी विद्यार्थी देखते रहे तो यह शिक्षण समय की बर्बादी है।


माध्यमिक और उच्च माध्यमिक स्कूलों में विज्ञान शिक्षण के लिए प्रयोगशालाओं की बात एक महत्त्वपूर्ण हिस्से के रूप में की जाती रही है। लेकिन वे अभी भी उस पैमाने पर उपलब्ध नहीं है जिस पैमाने पर उनकी आवश्यकता है और जैसा विज्ञान के पाठ्यक्रम में अपेक्षित है। प्रयोगों और उपकरणों का अनुभव बच्चों को देने के लिए कम से कम संकुल स्तर पर एक संकुल प्रयोगशाला तो बनाई ही जा


सकती है। सकुल के स्कूल अपनी समय सारणी इस प्रकार बनाएँ कि सप्ताह में एक बार आधे दिन उनकी कक्षा सकुल की विज्ञान प्रयोगशाला में लगे। खण्ड स्तर पर शिल्प-सम्बन्धी प्रयोगशालाओं का भी विकास किया जा सकता है ताकि बेहतर उपकरण मुहैया कराए जा सकें।


अधिगम की एक ऐसी संस्कृति के विकास के लिए न केवल कक्षा के स्तर पर बल्कि उसके बाहर और स्कूल के भी बाहर के स्थान भी ऐसे कार्यस्थल बन सकते हैं जिसके अन्तर्गत कई प्रकार की गतिविधियाँ आयोजित की जा सके। शिक्षक इस प्रकार की परियोजनाएँ, गतिविधियाँ, चाहे वे पाठ्यपुस्तको से सम्बन्ध रखती हो या नहीं, तैयार करें कि विद्यार्थियों को स्वयं कुछ करने/रचने का अवसर मिल सके। समय


स्कूल का वार्षिक कैलेंडर आजकल राज्य स्तर पर तय होता है। पहले भी इस सम्बन्ध में सुझाव आते रहे है कि वार्षिक कैलेंडर को कुछ अधिक विकेन्द्रीकृत किया जाए, ताकि वह स्थानीय मौसम और त्यौहारों के मुताबिक हो सके। इस प्रकार के कैलेंडर को जिला स्तर पर विकेन्द्रीकृत किया जा सकता है और जिला पंचायत की मदद से बनाया जा सकता है।


मौसम परिवर्तन के आधार पर सारणी में बदलाव लाए जा सकते हैं। उदाहरण के लिए, जहाँ भारी बरसात हो और इलाका बाद वाला हो तो बेहतर है कि स्कूल की छुट्टियाँ उसी दरम्यान हो। कुछ इलाकों के अभिभावक स्कूल से गर्मी के महीनों में भी स्कूल चालू रखने के लिए कहते हैं क्योंकि बाहर गर्मी इतनी ज्यादा होती है कि बच्चे खेल भी नहीं सकते। कुछ ऐसे भी इलाके है जहाँ अभिभावकों को यह लग सकता है कि छुट्टी कटाई के मौसम में हो ताकि बच्चा घर के पेशे में हाथ बँटा सके। इस प्रकार के परिवर्तन से बच्चों को उस संसार से सीखने का मौका मिलेगा जिसमें वे रहते हैं। बच्चे जीवन के महत्त्वपूर्ण कौशलों और वृत्तियों को ग्रहण करके अपने संसार से सीखते हैं। घरेलू पेशे में भाग लेने से वे स्कूल के कारण स्थानीय समुदाय से पृथक भी नहीं होंगे।

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